दो-महीने में फिर इसी घर में आना पड़ेगा। नहीं, मैं किसी की आश्रित न बनूँगी। क्या मैं अपने गुजर-बसर को नहीं कमा सकती? उसने स्वयं भॉति-भाँति की कठिनाइयों की कल्पना की, पर आज उसको आत्मा में न जाने इतना बल कहाँ से आ गया था। इन कल्पनामों का ध्यान में लाना ही उसे अपनी कमजोरी मालूम हुई।
साहसा उसे इब्राहिम अली की वृद्धा विधवा का खयाल आया। उसने सुना था, उनके लड़के-वाले नहीं हैं। बेचारी अकेली बैठी रो रही होंगी। कोई तसल्ली देनेवाला भी पास न होगा। वह उनके मकान की ओर चली। पता उसने पहले ही अपने साथ की औरतों से पूछ लिया था। वह दिल में सोचती जाती थी-मै उनसे कैसे मिलूँगी, उनसे क्या कहूँगो, उन्हें किन शब्दो में समझाऊँगी? इन्हीं विचारो में डूबी हुई वह इब्राहिम अली के घर पर पहुँच गयी। मकान एक गली में था,साफ-सुथरा; लेकिन द्वार पर हसरत बरस रही थी। उसने धड़कते हुए हृदय से अन्दर कदम रखा। सामने बरामदे में एक खाट पर वह वृद्धा बैठी हुई थी, जिसके पति ने आज स्वाधीनता की वेदी पर अपना बलिदान दिया था। उसके सामने सादे कपड़े पहने एक युवक खड़ा, आखों में आँसू भरे, वृद्धा से कुछ बातें कर रहा था। मिट्ठन उस युवक को देखकर चौंक पड़ी-वह बीरबलसिंह थे।
उसने क्रोधमय आश्चर्य से पूछा-तुम यहाँ कैसे आये?
बीरबलसिंह ने कहा-उसी तरह, जैसे तुम आयीं। अपने अपराध क्षमा कराने आया हूँ।
मिट्ठन के गोरे मुखड़े पर आज गर्व, उल्लास और प्रेम की जो उज्ज्वल विभूति नजर आयी, वह अकथनीय थी। ऐसा जान पड़ा मानों उसके जन्म-जन्मान्तर के क्लेश मिट गये हैं; वह चिन्ता और माया के बन्धनों से मुक्त हो गयी है।