मीर––तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे। कैसे जवान हैं। लाल बंदरों के-से-मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।
मिर्जा––जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा यह किश्त!
मीर––आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी भी खबर है कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्जा––जब घर चलने का वक्त आयेगा, तो देखी जायगी––बह किश्त! बस अबकी शह में मात है।
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी।
मिर्जा बोले––आज खाने की कैसी ठहरेगी?
मीर––अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है?
मिर्जा––जी नहीं। शहर में न जाने क्या हो रहा है।
मीर––शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गये। अबकी मिर्जाजी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूंद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा को पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-से-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नावाब बन्दी बना चला जाता था, और लखनऊ