सवार––घर में नहीं, तो कहाँ हैं?
नौकर––यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार––काम तुझे क्या बतलाऊॅ? हुजूर में तलबी है––शायद फ़ौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा!
नौकर––अच्छा तो जाइए, कह दिया जायगा।
सवार––कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जाजी से बोले––कहिए जनाब, अब क्या होगा?
मिर्जा––बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो।
मीर––कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है!
मिर्जा––आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।
मीर––बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर आप लौट जायँगे।
मिर्जा––वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर नहीं हैं।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थीं––तुमने खूब धता बतायी। उसने जवाब दिया––ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर पर न रहेंगे।
दूसरे दिन दोनों मित्र मुँह अंधेरै घर से निकल खड़े होते। बगल