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शतरंज के खिलाड़ी

मुहल्ले में भी जो दो-चार पुराने जमाने के लोग थे, वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल को कल्पनाएँ करने लगे-अब खैरियस नहीं है।जन हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।

राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची चली आती थी, और वह वेश्याओं में, भाँड़ों में और विला-सिता के अन्य अगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अँगरेज कंपनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था; पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे; किसी के कानों पर जूं न रेंगती थी।

खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुज गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले बनाये जाते; नित. नयी ब्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती। पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती; मिर्जाजी रूठकर अपने घर चले आते; मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रात भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानख़ाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनों मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि.इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम् पूछता हुआ था पहुँचा। मोर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी! यह तलबी किस लिए हुई। अब खैरियत नहीं नज़र आती! भार के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकरों से बोले- कह दो, घर में नहीं हैं।