दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर; और किवाड़े अन्दर से बन्द करके कुण्डी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की भनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गयीं। चुपके से घर की राह ली।
मिर्जा ने कहा––तुमने ग़ज़ब किया!
बेगम––अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूॅगी। इतना लौ खुदा से लमाते, तो क्या गरीब हो जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मै यहाँ चूल्हे-चक्की की फ़िक्र में सिर खपाऊँ! ले जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है?
मिर्ज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले––मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इन्तजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?
मिर्जा––खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर––इसका क्या ग़म––इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस यहीं जमे।
मिर्जा––लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा? जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगा, तो शायद जिन्दा न छोड़ेंगी।
मीर––अजी, बकने भी दीजिए; दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए।