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लॉटरी

प्रकाश ने छाती ठोककर कहा-यहाँ सिर फुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं; दिल्लगी है!

इतने में और पचासों आदमी इधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया अमेरिका का हब्शी! अभागा! पिशाच! दुष्ट!

अब कैसे किसी को विश्वास न आता। बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया-इसी लिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है! हराम का माल खाते हो और चैन करते हो।

छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला।

माताजी ने केवल इतना कहा-सभों ने बेईमानी की है। मै कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें! किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेगे।

रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला-चलो होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।

मैने पूछा-तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे?

उसने कहा-जब मैने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायेंगे। और मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हॅसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि......

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