साहब, बिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, और उसे चौपट किये डालते हो।
विक्रम तो लाडला बेटा था। उसे और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाये, तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसको सोहबत में लड़का बिगड़ा जाता है।
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब उन दिनों आये हुए थे। मैंने चुपके से कोठरी में जाकर ग्लास में एक चूट शराब ढाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं, कि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानों सेंध में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े-इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया। अम्मा ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा, मुझे आँसुओ से उनकी क्रोधाग्नि शान्त करनी पड़ी और दोपहर ही को मामू साहब नशे से पागल होकर गाने लगे फिर रोये, फिर अम्माँ को गालियाँ दीं, दादा को मना करने पर मारने दौड़े, और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।
( ३ )
विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब, और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ानेवाले, पूरे नास्तिक; मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर-भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब तो प्रातःकल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी