पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१४७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

१४७
लॉटरी


रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया; अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा। मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया, और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई।

( २ )

एक-एक करके इन्तजार के दिन कटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कुल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह साँय-सांय कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे।

एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा-भाई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता! व्यर्थ को चिन्ता और हाय-हाय। पत्नी की नाज़बरदारी में ही बहुत-से रुपये उड़ जायेंगे।

मैंने इसका विरोध किया-हाँ, यह तो ठीक है, लेकिन जब तक जीवन के सुख-दुःख का कोई साथी न हो, जीवन का आनन्द ही क्या। मै तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हॉ, साथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।

विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला-खैर, अपना अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बंदा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से जहाँ चाहा गये और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर