पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१४१

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

१४१
गुल्ली-डण्डा

मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदावे, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।

'नही, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दाँव ले लो।'

'गुल्ली सूझेगी नहीं।'

'कुछ परवाह नहीं।'

गया ने पदाना शुरू किया। पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टाँड़ लगाने का इरादा किया, लेकिन दोनों ही बार हुच गया। एक मिनट से कम में वह दाँव पूरा कर चुका। बेचारा घंटा-मर पदा; पर एक मिनट ही में अपना दॉव खो बैठा। मैने अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया।

"एक दॉव और खेल लो। तुम तो पहिले ही हाथ में हुच गये।।

'नहीं भैया, अब अंधेरा हो गया।

'तुम्हारा अभ्यास छूट गया।

'खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया?'

हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गये। गया चलते-चलते बोला-कल यहाँ गुल्ली-डण्डा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।

मैने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मण्डली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले। अधिकांश युवक थे, जिन्हें मै पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टाँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बात करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली