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गुल्ली-डंडा


ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ; पर कुछ सोच-कर रह गया।

बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो।

गया ने झुककर सलाम किया-हाँ मालिक, भला पहचानूंँगा क्यों नहीं? आप मजे में रहे?

'बहुत मजे में। तुम अपनी कहो।'

'डिप्टी साहब का साईस हूँ।'

'मतई, मोहन, दुर्गा यह सब कहाँ हैं? कुछ खबर है?'

"मतई, तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं। आप"

'मैं तो जिले का इंजीनियर हूँ।'

'सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे।'

'अब कभी गुल्ली-डण्डा खेलते हो?

गया ने मेरी ओर प्रश्न की आँखों से देखा-अब गुल्ली-डण्डा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो पेट के धन्धे से छुट्टी नहीं मिलती।

'आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।

गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़। बेचारा झेंप रहा था, लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी खासी भीड़ लग जायगी। उस भीड़ में वह आनन्द कहाँ रहेगा; पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता था। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जनें बस्ती से बहुत दूर एकान्त में जाकर खेलें। वहाँ कौन कोई देखनेवाला बैठा होगा। मजे से खेलेंगे और बचपन की उस