मैंने छड़ी उठायी और कस्बे को सैर करने निकला। आँखें किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था। जहाँ खँडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे। जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान को काया-पलट हो गयी थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन को संचित और अमर स्मृतियाँ बाहें खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थी; मगर वह दुनिया बदल गयी थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपट कर रोऊँ और कहूँ तुम मुझे भूल गयी! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिलकुल भूल गया! भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रोब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डण्डा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया! गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हाँ-हांँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो। शायद वही हो।
हाँ,है तो'
'जरा उसे बुला सकते हो'
लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिये आता दिखायी दिया। मैं दूर ही से पहचान गया। उसकी