विप्र-मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।
शंकर-और क्या है महाराज?
विप्र-कुछ नहीं है तो तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल भी दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूं। कोन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कोन कहे?
शंकर-महाराज, सूद में तो काम करूंगा और खाऊँगा क्या?
विप्र-तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आध सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें ८) रोज देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें अपने रुपये भराने के लिए रखता हूँ।
शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा- महाराज, यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई!
विप्र-गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो। मैं अपने रूपये भराये बिना तुमको कभी न छोङूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।
इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता! कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता; दूसरे दिन से उसने विप्रजी के