पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१२७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

१२७
सवा सेर गेहूँ

शंकर -- मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो, चाहे दास्तावेज लिखाओ, किस हिसाब से दाम रखोगे।

विप्र -- बाजार -भाव पाच सेर का है, तुम्हे सवा सेर का काट दूँगा।

शंकर -- जब दे ही रहा हूँ तो बाजार -भाव काटूँगा , पावभर छुङा कर क्यों दोषी बनूँ।

हिसाब लगाया गया तो गेहूँ के दाम ६०) हुए। ६०) का दास्तावेज लिखा गया , ३०) सैकङे सूद। साल-भर में न देने पर सूद का दर २।।) सैकङे। ।।) का स्टाम्प , १) दास्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पङी।

गाँव-भर ने विप्रजी की निन्दा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पङता है, उसके मुँह कौन आये।

( २ )

शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की। मीयाद के पहले रूपया अदा करने का उसने ब्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबेने पर बसर होती थीं, अब वह भी बन्द हुआ, केवल लङके के लिए रात को रोटियाँ रख दी जाती। पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक ब्यसन था जिसका वह कभी त्याग न कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन ब्रत के भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोङ दिया और तम्बाकू की हाँङी चूर-चूर कर डाली। कपडे पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबध्द हो गये। शिशिर की अस्थि-बेघक शीत को उसने आग तापकर काट दिया। इस ध्रुव-संकल्प का फल आशा से बढकर निकला। साल के अन्त में उसके पास ६०) जमा हो गये। उसने समझा, पंडितजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा, महाराज, बाकी रूपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूगा। १५) की तो और बात है, क्या