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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ


नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है, जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेंक दूंँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।

शकर-पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नही, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?

विप्र-जिस के घर से चाहो लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोड़ूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे?

शकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते, तो कह देते, अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देगे, वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार चतुर न था। एक तो ऋण-वह भी ब्राह्मण का-बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो पाया। बोला-महाराज, तुम्हारा "जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहां क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर 'खा ही रहा है, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ। मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे 'सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता! मै तो दे दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।

विप्र-वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यो होने लगा। वहाँ तो सब 'अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता भी ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो!

शंकर-मेरे पास रखा तो है नहीं, किसी से माँग-जाँचकर लाऊँगा तभी न दूंगा!

विप्र-मैं यह न माँनूगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गैहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।