मोरचे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे में हाथ डाला, तो मोहरे थी। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा; हाँ मोहरें थी। उसने तुरन्त कलसा उठा लिया, दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिपकर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।
उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आयें, और मुझे अकेला देखकर मोहरे छीन लें। उसने कुछ मोहरे कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकड़ी से जमीन की मिट्टी हटाकर कई गड्ढे बनाये, उन्हें मोहरों से भरकर मिट्टी से ढंक दिया।
( ४ )
महादेव के अंतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत् था-चिन्ताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जाने का भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरू कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दुकान खुल गयी, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड़ गया, विलास को सामग्रियाँ एकत्र हो गयीं। तब तीर्थ-यात्रा करने चले, और वहाँ से लौटकर बड़े समारोह से यश, ब्रह्म-भोज हुआ। इसके पश्चात् एक शिवालय और कुआँ बन गया, और वहाँ वह नित्यप्रति कथा-पुराण सुनने लगा। साधु-सन्तों का श्रादर-सत्कार होने लगा।
अकस्मात् उसे ध्यान आनंया, कहीं चोर आ जाये तो मैं भागूँगा क्योंकर! उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया, और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था, उसके पैरों में पर लग गये हैं। चिन्ता शान्त हो गयी। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गयी। ऊषा का आगमन हुआ; हवा जगी, चिड़ियाँ गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज आयी--
'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,
राम के चरन में चित्त लागा।‚
यह बोल महादेव की जिहा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार