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प्रेमघन सर्वस्व

पारसी आदि के शब्दों के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के शब्द प्रथम तो उसमें अन्यन्त कठिनता से लिखे जाते, और शुद्ध शुद्ध पढ़े तो कदाचित जाते ही नहीं; जिसके बीसों उदाहरण नित्य लोगों को मिलते हैं। इसी भौंति अरबी और पारसी के शब्द भी प्रायः हिन्दी शब्द के भ्रम से अशुद्ध और अयथार्थ पढ़ें जाते हैं, जैसे बालू बुखारा को 'उल्लू विचारा' और हाजी पुर इटौना को 'चाची तो बिटौना' पढ़ा जाता है। निदान अरबी अक्षर और उर्दू भाषा मिल कर इस देश का एक प्रकार सल्यानाश किये डालते हैं। न तो घसीट के अक्षर बड़े बड़े मौलवियों से पढे जाते, और न वह भाषा सामान्यों के समझ में आती! आरबी अक्षरों के कारण वह इतनी कठिन हो गई है कि उसे पारसी कहने में कुछ भी अयथार्थ न होगा। यही कारण है कि क्या ग्रामीण और क्या नागरिक सामान्यजन, जिन्हें विशेष कार्यालयों से सम्बन्ध नहीं है, जब कोई कचहरी के उर्दू लिखे कागज पाते तो वे उसे लिये गाँव गाँव और गली गली घूमते फिरते और चाहे पचास पारसी पहों से पढ़ायें, परन्तु जब तक कोई कचहरी का घसीट अक्षर पढ़ने वाला न मिले, कदापि उसका अर्थ उन्हें नहीं शात होता। इसके अतिरिक्त अरबी, पारसी आदि भाषाओं के गूढ शब्दों के अर्थ समझाने वाले की भी प्रापेक्षा होती ही है।

न केवल यहीं से इति है, वरेंच अभियोगों में प्रायः जो ग्राम्यजन साक्ष्य प्रदानार्थ आते वे बोलते तो कछ और लिखा जाता है कुछ, विचारा साक्षी तो कहता है कि-"मोरे घरे के नियरे" शरिस्तेदार साहिब लिखेंगे-'मुत्तसिल खानः मुजिहिर। तब यदि यह इज़हार साक्षी को सुनाया भी जाय, तो वह क्या समझेगा? फिर न केवल साक्षी मात्र, वरंच बहुतेरे नवीनागत इंग्लिस्थानी साहिब लोग भी यह अबुलफज़ली इबारत नहीं समझ सकते, और न बारम्बार उसका अर्थ ही बाचक से पंछ सकते! क्योंकि इसके लिये तो फिर उन्हें अपने शरिस्तेदार साहिब को मौलाना का पद देने, और स्वयम् शिष्य बन कर नित्य उनसे पाट पढ़ने के अतिरिक्त उन्हें अन्य कार्य का श्रवसर ही नहीं मिल सकेगा। पुलीस की रिपोर्ट और कैफियत प्रादि में भी प्रायः उस्ताद अमले लोग ऐसा ही किया करते कि विशुद्ध मर्म स्थल पर कोई अरबी आदि का ऐसा कठिन शब्द ढंद कर ला घुसेड़ देते कि प्रधान साहिब बहादुर समझी न सके हों, और यदि पूछे तो अण्ड का बण्ड अर्थ बता उन्हें पछाड़ दिया। यों ही ऐसे ऐसे भी शब्द ढुंढ़ कर समय पर कार्य में ला देते कि जो दो या तीन प्रकार पर पढ़ा जाता, लिखा तो कुछ और पढ़ दिया कुछ