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हमारी प्यारी हिन्दी

अनेक जनों के कान में हमारी नागरी भाषा की भाँति भारतीय भाषा का प्रयोग भी खटकेगा, परन्तु यह भी केवल उसी अधम अभ्यास का आभास है कि जो दुर्भाग्य से अद्यापि हिन्दी को उर्दू बनाये हुए है नहीं तो हिन्दी और भारतीय भाषा में भी उतना ही भेद है कि जितना आफताब और सूर्य्य में। अब यदि कोई सूर्य्य के स्थान पर आफ़ताब ही कहता और नहीं चाहता कि सूर्य्य शब्द उसके कानो को दुःख दे, तो किसी का क्या चारा है? नहीं तो जिस मूल पर आज यह भाषा सचमुच एक भाषा कही जाने योग्य हुई, वा हो रही है, वह यही है; और केवल यही कुविचार उसका कुटार अथवा उन्नति अवरोधक भी है। यद्यपि यह आग्रह और हठ अव घट रहा है, तथापि यह अभी बहुत दिनों तक इसका पीछा नहीं छोड़ता दिखाता परन्तु इस हट और आग्रह का तिरस्कार कर तथा उससे अपने उत्साह को मन्द न करके उद्योग तत्पर रहना ही इसके हितसाधकों की मुख्य चेष्टा है।

अनेक जन यह भी पूँछ बैठेंगे कि—"भारतीय भाषा तो उसी को कहेंगे कि जो समस्त भारत की भाषा हो, केवल पाश्चिमोत्तर प्रदेश वा उसके इधर उधर ही जिसका प्रचार है वह भारतभर की भाषा क्योंकर कही जा सकती है; जब कि आज भी भारत में माडवारी, मेवाड़ी, पंजाबी, गुजराती, मरहठी, तैलंगी, द्राविड़ी, कर्नाटकी, ओड़िया, बँगला, आदि प्रधान तथा इनके अनेक आभ्यन्तरिक भेद वर्तमान हैं? अन्यपि यह आपत्ति कुछ बहुत ही बे जोड़ नहीं है, परन्तु उन्हें समझना चाहिये कि हिन्दी शब्द भी इससे हीन नहीं हो सकता, क्योंकि हिन्द की भाषा हिन्दी, तब उससे एक प्रदेश की भाषा का ग्रहण कैसे हो सकता है? जो कहिये कि यह किसी विशेष भाषा के अर्थ में रुदि हो गया है, तो ब्रज भाषा और बुन्देलखंडी वा विहारी भाषा भी इससे पृथक् नहीं है। क्योंकि आप इन्हें एक पृथक् वा स्वतन्त्र भाषा नहीं कह सकते।

वास्तव में इसमें बड़ी उलझन है, और यही कारण है जो, आज हमने भारतीय भाषा का प्रयोग किया है, क्योंकि इसके अतिरिक्त कि हिन्दी विशुद्ध

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