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प्रेमघन सर्वस्व

उस देश के निवासियों की उन्नत देशा नहीं और यावत्पर्यन्त उस देश की भाषा की उन्नति नहीं, तब तक उस जाति की उन्नति कैसे मानी जायगी? जय हिन्द या भारत की दशा उन्नति पर थी, हिन्दू वा आर्य जाति की दशा तथा हमारी हिन्दी भाषा अर्थात् संस्कृत वा नागरी इत्यादि की भी उन्नति श्री अब जब से कि भारत की दशा आरत हुई है, इन दोनों का भी अध:पतन हुआ; वा यो कहिये कि जब से हिन्द जाति का प्रारब्ध, प्रताप या पराक्रम का सूर्य पश्चिम समुद्र में जा अस्त हुआ, हिन्द और हिन्दी की उन्नति के दिन का अन्त हो क्रमशः उनका दीनदशारूपी अन्धकार बढ़ता गया। वास्तव में यह विभेद कहीं अयुक्त भी होता, क्योंकि केवल एक आर्य जाति की उन्नति वा अवनति के आधार पर उन दोनों की उन्नति वा अवनति निर्भर है इसीलिये हमने इन तीनों को एकही में मिलाया है इसलिये कि इन तीनों का स्वयम्-सिद्धि सम्बन्ध है।

बहतेरे जन कहते और हम नित्य सुनते हैं, कि हिन्द वा भारत अब क्रमशः उन्नति कर रहा है, परन्तु क्या यह सच है? हमारे पाठकों में अनेक जन कह उठेंगे, कि "हाँ! हाँ इसमें भी क्या कुछ सन्देह है! तुम्हें इतनी भी समझ वा परिज्ञान नहीं! देखते नहीं हो क्या से क्या हो गया, और निरन्तर क्या हुआ जाता है?" हाँ हम भी आधे मुँह इसे स्वीकार कर लेंगे,पर क्या हमारा हटीला मन भी मान लेगा? नहीं नहीं और कदापि नहीं। वह तो कहता है कि "अजी ओस चाटने से कहीं प्यास बुझी है!" अथवा "दूसरे को लाठी टेक कर उसके विरुद्ध निज मनोवांछित स्थल को पहँचने का आशा और उद्योग किस अर्थ का?" ब "उच्छिष्ट भोजन कर गहिर्त जीवन धारण से क्या लाभ!" अथवा "स्वप्न और प्रेतबाधाभियुक्त वा उन्मत्तावस्था के विचार और बाक्य का क्या टिकाना!" सारांश ममत्व, अपनपौ अपना, हमारा, हम, हमसे और हमी से, हमारा और हमारा ही, कहाँ तक कहे कि ३ हक़ार वह और एक यह बस इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं, और कदापि नहीं। न अन्य शब्द, वर्ण, मात्रा, अनुस्वार वा विसर्ग देखा, और, न सुना जा सकता, और न ईश्वर चिर दिन चित्त के विरुद्ध इसके स्वीकार का अवसर दे, बस इसी प्रकार और कहाँ तक कह कि जिसका अन्त नहीं।

पाठक जन कहेंगे कि "यह कैसी व्यर्थ और वे जोड़ बातें बक चले हो" हाँ यथार्थ में यह उन्मत्त प्रलाप ही है, परन्तु हाय! इसमें भी सन्देह नहीं कि