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स्थानिक सम्वाद

माला ३] श्रावण तथा भाद्रपाद विक्रमीय सं॰ १९४४ [मेघ १-२

अब के पानी ने धोकर कजली को उजली कर डाला, ऐसी झड़ी लगी कि कोई घड़ी न अड़ी; सड़ी सड़क की कीच के बीच विचारे मेले वाले दलदल में फंसे बैल से बिलबिलाते म्युनिस्पिल के नाम को चिल्लाते रो रो कर दोहरी बरसात कर दी, भागने में पैर की सहायता व्यर्थ देख, पङ्क में पैरने से भी असमर्थ हो, बुधि खो, बिलखते, बन्दूक के छर्रे से बूंदियों के अघात सहते, मूं लटकाये अपने करम को झीखते थे। एक्के गाड़ियों की दौड़ में वह भचाभची मची कि मानों कींच के फव्वारे चलते थे कि जिनसे चलने वाले क्या कितने कोठे पर के लोगों के वस्त्र दागी होते थे, जिनपर वृष्टि से फैल कर रामरञ्जी रङ्ग हो मेलेपर जेलखाने के कैदियों की पलटन की छबि छा गई॰ अंधेरी कैसी छाई, कि वाह! लालटेन सड़कों पर हई नहीं किन्तु उसके बदले ऐसे ऐसे गड़हे पद पद पर मौजूद कि जिसमे गिरे आदमी का डूब मरना यदि असम्भव होतो हो, परन्तु सन्चैत्तस्नान लो सर्वथा सुलभ है। फिर क्या भली चहल पहल मची, तेज हवा मशाल बुझाती थी, रंडियाँ घबराहट से 'डराती और उगताती; कोंच की छींट और बौछार से पेशवाज बचाती, लाभ से निराश होकर लजातीं—खिसातीं अपनी दुर्गति का तमाशा दिखाती भी तमाशबीनों को तमाशा देखने को बुलाती पर कौन किसकी सुनता था। हाँ जिनके रूप यौवन, और प्रेमियों का बाजार गर्म था, वहाँ छाते लगे, या योंही भीगते मरने को मौजूद, पर दरने से क्या मतलब सारांश दो चार वेश्याओं के अतिरिक्त और सबों के नसीब में नींबुआ नमक नसीब हुआ।

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