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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

यही अनुमान उपस्थित होता कि क्या इस के विषय में विधि का विधान भी कुछ ऐसा ही है? यद्यिपि यह विचार कर बहुत दुःख होता, तौभी यह सोचकर कि श्रीमान् लार्ड कर्जन और फुलर महाशय आदि एवम् और बहुत बड़े बड़े लोग भी जब अपने अपने विचारे अनुष्टानों में कृतकार्य न हुए, तव हम लोगों का निज विचारानुसार अपने कार्यो में न कृतकाय्य होना भी कुछ विशेष आश्चर्यदायक नहीं है।

अतएव आगामि से अब अपने पुरुषार्थ द्वारा उन सब मनोरथों की सिद्धि की चिन्ता का त्याग कर केवल ईश्वरेच्छानुसार इसके उन्नति वा सुधार की आशा रख स्वयम् निमित्त मात्र रह इसके चलाने की इच्छा करते हैं। कौन जाने कि अपने इसी टेढ़े प्रयत्न द्वारा इसमें सिद्धि प्राप्त हो, क्योकि यदि हमारी गवर्नमेण्ट की साम्प्रतिक उग्र नीति का फल भारतीयों की स्वत्व प्राप्ति प्रार्थना की पुकार और मचलाहट वा उसके राजकर्मचारियों के यो कठिन दण्ड विधान से प्रजा की स्वदेशी वा बहिष्कार प्रतिज्ञा दूर होना अथवा इसी विदेशीय वस्तु वहिष्कार के द्वारा यहाँ के लोगों को वारज्य सा अलम्य लाभ सुलभ है तो क्या हमारे पूर्वोक्त प्रयत्न से पूर्व अभिलाषित मनोरथों का सिद्ध होना कुछ दुःसाध्य है। अनः उसी ईश्वर का समरण कर कि जो कैसे कार्या से क्या फल उत्पन्न करता जिसे मनुष्य कदापि नहीं समझ सकता है, हम इसके विषय में पुनरपि यत्नवान होते हैं।

अवश्य ही लेखनी बहक कर बहुत दूर पहुँचकर लौटी है, तो भी सूक्ष्मतः कुछ आवश्यक विषय कहने के पूर्व हम अपने अनुग्राहक ग्राहक गण तथा सहयोगी समूह से इस त्रुटि की क्षमा प्रार्थनानन्तर उनकी पूर्ववत कृपा दृष्टि कृष्टि की आशा रख यह निवेदन करते हैं कि आगामि से कादम्बिनी में स्वदेशी कागज और मसि कार्य में लाने का कारण केवल साम्प्रतिक देश में वेग से फैलता हुआ स्वदेशी अनुराग मात्र है। इसी प्रकार इसके प्रबन्ध विषय में जो कुछ हेर फेर करना उचित समझा गया है, अनुष्ठान के पूर्व उसका अख्यान अनुचित जानकर हम न कहना ही अच्छा समझते हैं, स्बोंकि ईश्वरेच्छानुकूल होने से वह सबको स्वयम् दृष्टिगोचर होगा। इसी प्रकार अपने गत वर्ष के कार्य और आगामि के अर्थ विचार दोनों की कथा न कह हम केवल अपनी और अपने प्रिय पाठकों की मङ्गल कामना कर अब इस लेख को समाप्त कर "आदिमध्यवसानेषु हरिः सर्वत्र गीयते।"