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प्रेमघन सर्वस्व

या देश के विरुद्ध होने वाले राजनैतिक विषयों में सर्व सामान्य को अपने प्रतिनिधियों ही का दोष समझने अथवा उनकी असावधानी पर व्यर्थ की लाञ्छना का अवसर था, किन्तु क्रमशः लोगों को यह भी निश्चय हो गया कि प्रजा के प्रतिनिधियों का समावेश केवल विडम्बना मात्र है, वस्तुतः जो राजकर्मचारी लोग चाहते है, वही करते हैं।

निःसंदेह भारतीय प्रजा स्वभाव ही से राजभक्त है, क्योंकि वह आर्य राजाओं को छोड़ अकबर से सहृदय यवन सम्राट को भी पूजती थी। हमारी स्वर्गीया महाराणी विक्टोरिया में उनकी माता से न्यून भक्ति न थी, जिन्हें वे लोग देवी कह कर पुकारते थे। वर्तमान और उनके युवराज एवम् समस्त सज परिवार में उन्हें यदि अधिक नहीं तो इङ्गलैण्डीय प्रजा से सौ गुनी मक्ति अवश्य है। अङ्गारेजी राज्य को भी वे सदैव अपने सिर की शोभा मानते और जानते कि ऐसा शान्त और न्यायी राज युरप में दूसरा नहीं है, किन्तु यह सोचकर उन्हें अति हताश होना पड़ा कि वर्तमान प्रणाली के हमारे सम्राट वास्तव में साक्षी गोपाल अथवा मंदिरों के ठाकर जी से अधिक शक्ति नहीं रखते। वे केवल 'सिंहासन की शोभा ही की सामग्री पात्र हैं, करने घरने, खाने पीने एवम् प्रमाद या धक्का देने के अधिकारी, मुखिये, सभाधानी, पाटिये अथवा पुजारो स्वरूप राजकर्मचारी ही लोग हैं। सुतराम ठाकुरजी में मक्ति होते हये भी, इनके अत्याचारों से धैर्य खोकर भक्तों को अश्रद्वा उत्पन्न होई जाती है। इसी से ठाकुरजी की कृपा और भक्ति दोनों प्रायः फल शुन्य होकर केवल महन्त और पुजारी ही के अच्छे और अधम होने पर सामान्य भक्तों के सन्तोष वा रोष अथवा प्रसन्नता और अप्रसन्नता का अटल सम्बन्ध है।

बहुत दिनों तक तो अङ्गरेजी राज प्रतिनिधि 'देश के नाडीज्ञान' के विचार' नीति निर्धारण और प्रबंध की पष्टता आदि में व्यस्त, स्वातन्त्र्य विस्तार और कुछ देशसुधार के प्रयत्न करके अपने राज्य की नींव जमाते थे। प्रजा भी भयङ्कर अत्याचार के स्थान पर शांति की कांति देख मोहित, रामराज्य का धनमान करती क्रमशः नित्य नई उन्नति की आशा लगाये. बटिश गवर्नमेण्ट के गुण गाती १८५८ ई॰ वाले महारानी विक्टोरिया के अनुशासन पत्र वा विज्ञापन को ब्रह्मलिपि सा अटलमान अपना सर्वस्व समझे थी। किंतु पिछले राजप्रतिनिधियों की अनेक चालों को देख वह उसे केवल लड़कों को फुसलाने बाली बात अनुमान करने लगी। प्रथम दिल्ली दर्बार में वह बहुत बड़ी र