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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

महाराष्ट्रों का दक्षिण और सिक्खों का पञ्जाब में। मुसल्मानी द्वेषग्नि को जागृत और यवन दर्प का उपहास करती सी शूकर के चिन्हवाली वजा फहराती "वाह गुरू की फतह" की पुकार के संग मानो मुसल्मानी शासन का न केवल अन्त बतलाने लगी, वरञ्च अन्त को सचमुच अन्त ही कर दिया। किन्तु शोक से फिर उसो महाशक्ति का स्मरण आता है कि जो सर्वथा अघटित घटना घटित करती कि वे दोनों महाराज्य स्थापित होकर भी स्वप्न को सम्पत्ति के समान स्वल्प ही समय में विलीन हो गये और सात समुद्र पार से आयी एक वणिक मण्डली यहाँ के लोगों के परस्पर वैर विरोध की सहायता पाकर अकस्मात् इस बड़े देश की स्वामनी बन बैठी। इसी से यह प्रतिपन्न होता है कि कदाचित ईश्वर ने उस बड़े शासन के नाश करने ही के अर्थ यह रचना रची थी, वा ऐतिहासिक जनों को यह शिक्षा देने के लिये कि देखो किस प्रकार निर्बल से सबल का सर्वनाश होता और कैसे कैसे प्रदल पराझमशाली सम्राटों का भी तनिक तनिक सी त्रुटि के व्याज से नाम तक मिटता, एवम् परम सामान्य और असहाय जनों को भी बिना प्रयास साम्राज्य प्रास करा दिये जाते कि जिसका स्वप्न में किसी को भाव मी नहीं होता? निदान जिस प्रकार फुट के वश इस देश के निवासियों की सहायता पाकर मुसल्मानी राज्य यहाँ स्थापित हुआ था, उसी प्रकार अगरेजी राज्य भी जम चला। मुसल्मानी राजा के दुःखों से प्रजा अति उद्दिन थी, कम्पनी के शान्त शासन को पा यहाँ के लोग मोहित हो उठे। परन्तु कुछ दिनों के बोलने और राज्य के स्थिर हो जाने पर उसके अनेक कर्मचारियों के अत्याकार, स्वार्थान्धता के व्यवहार तथा प्रमाद के फल ने बात की बात में उसके अधिकार को भी हटा, यहाँ ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित किया और कम्पनी जहाँ की थी, वहीं जा बैठी।

अंगरेजी राज्य ने वास्तव में प्रजा का बहुत कुछ उपकार किया, वरम सच तो यों है कि मानो भारत का उसने अनेक अंशों में काया पलट ही कर दिया। शान्त शासन से स्वस्थ, शिक्षा विस्तार से पाश्चात्य विद्या और विज्ञान अर्जून कर यहाँ की प्रजा चैतन्य हुई। एक प्रकार की शिक्षा ने एकही प्रकार के मत और योग्यता के कुछ लोग समान रीति से देश के सब प्रान्तों में सुसम्पन करके उन्हें पश्चिमी रीति नीति और वर्तमान राज प्रबन्ध प्रणाली के समझने के योग्य बनाया, जिसके लिये भारतीय जन ब्रिटिश साम्राज्य