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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्बत्सर

न कर दीन भारतीयों की निन्दा कर कर गालियाँ देने लगे, और वङ्ग अङ्ग भंग कर तो मानो प्रजाओं के हृदय ही को मना कर डाला! किन्तु प्रजात्रों की चिल्लाहट की आहट से उन्हें ऐसी घबराहट हुई कि वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये और शून्त को उसी दोष में लार्ड किचनर से लड़ ऐसे परास्त हुये कि बस, असंख्य मन्सूबे मन के मनी में रक्खे घर जा पहुँचे। हाँ, चलते-चलाते एक दिन समस्त बङ्गाल को उपवास करा गये। परन्तु उसी सम्बन्ध से यहाँ की प्रजा के मन में एक नवीन उत्साह का उदय भी हुअ, और कुछ ऐसा अपूर्व उलट फेर उपस्थित होने लगा कि जिससे समस संसार में एक नवीन चिन्ता और चर्चा फैल चली। यथा,—

आनन्द अरुणोदय।

हुआ प्रबुद्ध वृद्ध भारत निज भारत दशा निशा का।
समझ अन्त अतिशय प्रमुदित हो तनिक तव उस नेताका॥
अरुणोदय एकता दिवाकर प्राची दिशा दिखाती।
देखा नत्र उत्साह परम पावन प्रकाश फैलाती॥
उद्यम रूप सुखद मलयानिल दक्षिण दिशा से आता।
शिल्पकमल कलिका कलाप को बिना विलम्ब खिलाता॥
देशी बनी वस्तुओं का अनुराग पराग उड़ाता।
शुभ आशा सुगन्ध फैलाता मन मधुकर ललचाता॥
वस्तु विदेशी तारकावली करती लुप्त प्रतीची।
विदेषी उलूक छिपने का कोटर बनी उदीची॥
उन्नति पथ अति स्वच्छ दूर तक पड़ने लगा लखाई।
खग 'वन्दे मातरम्' मधुर ध्वनि पड़ने लगी सुनाई॥
तजि उपेक्षालस निद्रा उठ बैठा भारत ज्ञानी। इत्यादि।

इसी प्रकार उसके सच्चे हितैषी भी उसकी वर्तमान दशा कृषि पर या समालोचना कर चले; यथा—

शुभसम्मिलन।

"भई वृद्धि बंचि ओर तर कुटिल नीति हेमन्त।
कियो कृपा करि कोउ विधि जौ विधि वा को अन्त॥
प्रविस्यो साहस को सिसिर फैलावत आतङ्क।
कम्पित करि निज दर्प सो विद्वेषी जन रङ्क॥