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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

रहना सर्वथा समीचीन है। क्योंकि यदि हम लोगों के उद्योग से हमारी भाषा का कुछ भी सच्चा उपकार हो सके, अथवा हम लोग अपने देश बान्धवों का ध्यान उनकी मातृभाषा की ओर कुछ विशेष आकर्षित कर सके, या साहित्य की प्रचलित प्रणाली से निराली सजधज दिखलाकर उनका मन मोहित कर सकें, या काव्यानन्द निमग्न कर उनके मुख से साधुवाद' का उच्चारण करा सके वा देश और समाज की नित्य प्रति नवीन अवनति का मर्म सुझा कर नतग्रीव कर उनकी नासिकात्रों से अस्वाभाविक शोकोच्छवास प्रवाहित करा सकें और उसके सुधार के लिए कुछ लोगों के भी हृदय में विचार उत्पन्न कर सकें व निज धर्म, कर्म, रीति, नीति, आचार, व्यवहार के प्रचार और उसके विरुद्ध बढ़ती बाढ़ सी कुरीतियों के रोकने के अर्थ उन्हें तत्पर और बद्ध-परिकर कर सके, तो अवश्यही हम अपने को सचमुच लाभवान् समझ सके, किंतु केवल संसार भर के नीरस समाचार, वा शुष्क राजनैतिक पुकार, अथवा दूसरे पत्रों के लेख संग्रह कर प्रकाशित करने के अर्थ तो लेखनी को छूना भी नहीं चाहते॥

निदान इन्हीं कारणोँ से कई बार उत्साहित होकर हम लोगों ने लेखनी उठाई और देश की दशा निरख परख फिर चपके हो रहे। क्योंकि और बालों के अतिरिक्त केवल निज नागरी भाषा ही के विषय में, जिसके लिये हम लोग सदैव लालायित रहे हैं, जब २ जो कुछ कर्तव्य विचारा, उसके कुछ अंश को भी पूरा न कर पाया। इसलिए कि केवल वर्तमान भाषा प्रेमियों के भरोसे उनका निर्वाह असम्भव सा प्रतीत हुआ और अन्य को सहायता की अपेक्षा न कर स्वयम् अपने सिर पर उस भाई बहन के योग्य शक्ति सम्पन्न होने की हर समय प्रतीक्षा ही करते २ बहुत सा समय बीत गया, और अब तक वह समय न पाया कि जिसके ऊपर कर्तव्य मात्र की आशा निर्भर थी! वरञ्च बीच २ में समय ने ऐसे २ विचित्र दृश्य दिखलाए, कि बहतेरे मनोरथों ही को मन से धोकर दूर बहाये। न केवल सांसारिक परिवर्तन ही को दिखा कर दिल की आँखें खोल दी, वरञ्च अपने शारीरिक और मानसिक दशा में भी आकाश और पताल के तुल्य अन्तर उपस्थित कर दिया। इसी भाँति न केवल इच्छा अनुराग, उत्कण्ठा, व्यसन और वासना ही को अदल बदल डाला, वरञ्च बुद्धि और विचार ही में कुछ इस प्रकार पर फेर फार उत्पन्न कर दिया, कि जिनमें दिन और रात का सा भेद लखाई पड़ने लगा। अवश्यही यदि ऐसे. संगी साथी न रहे कि जो अपने समय में अद्वितीय और अनुपम, एवम् देश