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प्रेमघन सर्वस्व

इनका दर्शन दुर्लभ किया, ईश्वर ने इनके यथार्थ नामियों का भी दर्शन दुर्लभ कर दिया। कादम्बिनी और नीरद की वर्षा बन्द होने से न केवल हम से चातकों ही की उत्कण्ठा पराकाष्ठा को पहुँची, वरंच विचारा भारत ही आरत होता चला जाता है। भला आपही अपनी वर्षा कर चलिये कि—ख़रबूजे को देखकर शायद खरबूज़ा रंग पकड़ ले, तो देश का भी मङ्गल हो।" कोई कहता कि अजी जब से इनका निकलना बन्द हुआ, तुमने तो लिखना ही पढ़ना छोड़ दिया। इनके जरिये से तो भला कभी कभी कुछ लिख भी लेते थे, अब तो गोया इसकी सुध ही भूल गये हो? मित्र! किस आशा दुराशा में पड़े हो। तुमारे सर्वथा इच्छानुसार सुख सामग्री और समय काहे को आयेगा, और कब किसे उपलब्ध हुआ है! अंगरेजी की वह कहावत बहुत सत्य है, कि—'Perfect happiness is impossible" अर्थात् दुर्लभं परमं सुखम्। अतः समयानुसार ही तुम्हें भी चलना चाहिये। बहत मनसूबे को बटोरी। थोड़ा ही करो। नागरी नीरद नहीं तो कादम्बिनी ही सही, परन्तु कुछ कर चलो? इतना और ऐसा भी समय और स्वास्थ्य दुर्लभ है।" कोई कहता, कि—"यदि द्रव्य के हानि लाभ का विचार हो, तो लीजिये जो कुछ कादम्बिनी खाते खरच पड़ेगा मैं दूगा,आप निकालिये।" दूसरे कहते "साहिब मैनेजरी का काम मुफ्त में मैं कर देगा आप लिखकर लेख मात्र दे दिया करें और सब कुछ हो रहेगा। तीसरे आशा करते, कि—यदि लेख की न्यूनता ही चिन्ता का कारण हो, तो कहिथे उसके आकार का चौगुना लिखकर महीनों आगे से भेज दिया करूँ, और फिर ऐसे प्रबन्ध कि जो देखे और कहे कि वाह।" चौथे यह प्रश्न करते कि—"अब कहिये, कि क्या आपत्ति है?" मैं इन बातों को चुपचाप सुनता, और कछ निश्चय न कर सकता। कहता, कि भाईयो? जब सबी बस्तु का ठीक लग गया, तो मेरी आवश्यकता ही क्या है? यन्त्रालय श्रापी लोगों का है, छाथिये। मुझ से न पूछियें, न मेरी सम्मति लीजिये। उत्तर मिलता; किये—"वाह! भला हमें इसकी क्या ज़रूरत है? यह सब तो तुमारे लिये कहते हैं, तुम यदि वैसी ही उदासीनता दिखलाश्रो और इतने पर भी कुछ न लिखा पढ़ा चाहो, तो हम सब क्यों यह प्रपञ्ज फैलाने लगे। परन्तु याद रक्खो कि-यों शक्ति को नष्ट करना और अमूल्य समय को व्यर्थ बिताना बुद्धिमानों का काम नहीं है!"

निदान यों बारम्बार आनाकानी करते करते मैं भी अग्रान हो गया,