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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

धन्य २ उस परब्रह्म सच्चिदानन्द धन को कि जिसकी कृपा बारि बिन्दु वर्षा से आनन्द प्रमत्त हो अचाञ्चक आज फिर यह मन मयूर नवीन उत्साह अवलम्बन कर आनन्द कादम्बिनी के आनन्द विस्तार लालसा से थिरिकने लगा, और बिना किसी सोच-विचार के लेखनी चातक बन चहँकार चली, कि—मेरे प्यारे रसिक! आओ आज के समागम से चिरवियोग दुःख को भूलें, और बहुत दिनों से मानों मानवती बन बैठी वार्ता वधूटी के आरम्भ घुंघट को खोल उसके आनन्द मन्दस्मित का स्वारस्य अनुभव करें। कुछ अपनी बीती सुनाये, और कुछ तुम्हें भी सुनाने का अवसर दे । यद्यपि— "खुलेंगे शिकवे के जब के दफ्तर इधर हमारे उधर तुमारे। तो क्या क्या गुजरंगे हाल दिल्पर इधर हमारे उधर तुमारे॥" अवश्य ही एक अनूठी कठिनाई है; क्योंकि दोनों ओर कुछ ऐसा ही साहित्य सञ्चित है।

तो क्या कुछ न कहें? यदि कुछ न कहें तो विशेषता ही क्या? और आज मिलाप का फल ही क्या? किन्तु कहने की इच्छा करते ही आपके लिये अनगिनत उलाहने आकर हठात् उपस्थित हो उच्चारण के प्रार्थी होते हैं, जिन्हें सुनते ही आप ऊबकर कह उठेंगे कि—"आँय! यह आते ही आग उगलौवल कैसी?" इसी से जो कहने को जी चाहता है उसे न कहकर कुछ इधर ही उधर की चर्चा चला चलनी उचित प्रतीत होती है। तौभी जो भूल से कहीं वही सुर छिड़ जाय, तो रूठ न जाइएगा। क्योंकि—"भरी है सीनये सोज़ा में आतिश इस्कदर गम की। जो ठण्डी साँस भी लूँ तो मेरे मूं से धुवाँ निकले।" और आप भी तनिक अपनी ओर बचाइएगा, कहीं यह न पूछ चलियेगा, किहे, हे, हज़तू आज तक कादम्बिनी किस आसमान की हवा खा रही थी? हम लोगों की आँखों को इन्तज़ार का बीमार बना रही थी? उनके भाई नागरी नीरद साहिब भी ऐसे उड़े कि अन्का हो गये! हम लोगों का कुछ खयाल भी न रहा कि कहाँ क्या होता है और किस पर क्या बीत रही है? फिर बतलाइये तो कि यह कैसी कुछ बेएतनाई, बेवफ़ाई, ढिठाई, या वेहयाई है क्योंकि इसके उत्तर में यदि कदाचित् मैं भी निवेदन कर चलूँगा कि दया निधान! इन्हीं बातों में से कुछ मेरी ओर से भी दुहरा लीजिये, और बतला तो