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प्रेमघन सर्वस्व

त्यो मधुमाते मलिन्द सबै जय के करखान रहे कछु गाई॥
मगल पाठ पढ़े दिजदेव सबै विधि सो सुखमा उपजाई।
साजि रहे सब साज घने बन मैं रितुराज की जानि आवाई॥

तात्पर्य यह कि—हमारा स्वाभाविक सच्चा सम्वत्सर सुखद सब ऋतुओं के राजा बसन्त से प्रारम्भ होता है, वा यों कहिए, कि हमारे प्यारे नवीन सम्वतसर के स्वागत के लिए दो सप्ताह पूर्व ही से ऋतुराज अपने नवीन साज-समाज से सुसज्जित हो या सुशोभित होता है। औरों की भाँति यहाँ वह उटपटाँग खाता नहीं कि—"खुदा की दी दाढी जब चाहा तब नोचा।" जिसके मन मे जब से आया अपने सम्वतसर को पकड बुलाया, यह भी न विचारा कि—नवीन सम्वत्सर के हर्ष मनाने में कुछ प्रकृति सहायता देगी कि नहीं, अथवा ऊपरी हर्ष दिलाने के सग सचमुच मन भी कुछ स्वाभाविक प्रहर्षित रहेगा वा नहीं।

जैसा कि अंगरेज लोग हृदय कम्पायमानकारी, खटाखट दाँत बजाने वाले नाडे' के मध्य जनवरी मास से अपने नवीन सम्बतसर का आरम्भ मानते, और उसकी पहली तारीख को नवीन सम्वतसर का प्रसन्न प्रथम दिवस (Happy New Year's Day) कह कर पुकारते, और आनन्द मनाते हैं, हम नहीं जानते कि जब भारत में उस समय का जाडा अत्यन्त असह्य होता है, तो योरप में क्या दशा होती होगी? तथापि वे जनवरी से प्रारम्भ किये सन् के अनुसार अपना राज-काज का लेखा परेखा ठीक रखने में भी ऐसे असमर्थ होते कि मखमार कर एप्रिल मास से, जो कि हमारे इसी चैत्र में पडता वा हमारे वर्षारम्भ ही के कुछ आगे पीछे श्रारम्भ होता है. वर्षमानने से वाध्य होते हैं और एक वर्ष को दो वर्ष लिखते हैं, जैसे कि सन् १८६४-९५॥

मुसलमान लोगों की तो जैसे समग्र बातैं संसार से निराली हैं, वैसे ही उनका सम्वत् और महीना भी चलता फिरता है और जो कि उनकी जाति और सृष्टि ही मुहर्रमी है, अतः उनका सम्वतसर भी मुहर्रम के आरम्भ से आरम्भ होता। जब मुहर्रम आया, और दूसरा वर्ष लग गया। यों ही जो कि हर्ष और आनन्द की समस्त सामग्री इनके यहाँ हराम मानी जाती हैं, अतः सम्वतसर के प्रारम्भ में भी क्यों आनन्द मनाने की कोई विधि होने लगी। अवश्य ही पार्सी भाषा मे इसके लिए एक शब्द नौरोज का