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हमारा नवीन सम्वतसर

सङ्कुल विहीन, और जन स्थान के सब खेत कटने से पृथ्वी शुद्ध और स्वच्छ हो फिर से नवीन हुई है।

पशु मात्र अपने प्राचीन लोम का परित्याग कर, नवीन से युक्त हो नवीन हुए हैं, पत्तियों ने भी कुरोज किया पुराने पर झाड़ नए, लेकर बने, सादि कीड़ों ने भी प्राचीन केचुले छोड़ नवीन हो चमकने लगे, अनेक ऊष्मज जीवों का भी फिर से नवीन सृष्टि का प्रारम्भ हो चला। मनुष्य के शरीर के धमनी स्रोत में भी नवीन रुधिर पिघल कर पतला हो प्रवाहित होने लगा। यही कारण है कि—मनुष्य का मन और उत्साह भी नवीन हो गया, सब रीति और प्रीति भी नवीन हो चली। सारांश यह कि समस्त संसार ही काया कल्प कर नवीन हो हमारे सच्चे नवीन सम्बतसर को प्रमाणित कर रहा है। जैसा कि श्री महाराज मानसिंह जू देव द्विजदेव' इस समय की शोभा का आख्यान करते हैं—

और भाँति कोकिल चकोर ठौर ठौर बोलें और भाँति सबद पपीहन के द्वै गये।
और भाँति पल्लव लिये हैं वृन्द वृन्द तरु और छवि पुञ्ज कुज कुञ्जन उने गये।
और भाँति सीतल सुगन्ध मन्द डोले पौन दिनदेव देखत न ऐसे पल द्वै गये।
औरै रति औरै रंग औरै साज औरै संग औरै बन औरै छन औरै मन कै गये।
गुञ्जरन लागी भौंर भौरैं कलि कुञ्जन मैं क्वलिया के मुख नैं कुहूक्रनि कड़े लगी।
द्विजदेव तैसे कछु गहब गुलावन तैं चहिक चहूँधा चटकाहटि बढ़े लगी।
लागी सरसावन मनोज निजं ओज रति विरही सतावन की बतियाँ गढ़े लगी।
होन लागी प्रीति रीति बहुरि नहसो नवनेह उनई सीमति मोह सो मढ़े लगी।

चहकि चकोर उठे सोर करि मोर उठे बोल ठोर ठोर उठे कोकिल सुहावनें। खिलि उठी एकैबार कलिका अपार हिलि हिलि उठे मास्त सुगन्ध सरसावने। पलक ने लागी अनुरागी इन नैनन मैं पलटि गये धौं कर तरु मन भावने उमंगि अनन्द असुवान लौं चहूँघा लागे फूलि फूलि सुमन मरन्द बरसावने॥

फूले धनें धनें कुजन माँह नये छबि पुञ्ज के बीज बए हैं।
त्यौं तरु जूहन में दिजदेव प्रसून नयेई नये उनये हैं॥
साँची किधौं सपनों करतार विचारत हूँ नहिं ठीक ठए हैं।
संग नये त्यों समाज नये सब साज नये रितुराज नए हैं॥
बायु बहारि बहारि रही छिति बीथी सुगन्धन जाति सिंचाई।