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प्रेमघन सर्वस्व

बारगी बेशान गुमान "जान न पहचान बीबी साहिबा सलाम की मसल सच कर दी।

मित्र! सच पूंछो तो जब से 'कविवचनसुधा' से सुधा का स्वाद "सुधासुरपुर" जा बत्ता और 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' में चमकीलापन और मनोहरता का गुण मोहनपन के परदे मे ढँप गया, और उस प्राणोपम परमप्रिय हरिश्चन्द्र ने कि जिसे भारतेन्दु क्या संसार सूर्य कहना योग्य अपनी लेखनी को आनन्द के कलमदान बिश्रामालय में स्थान दिया, वे मन्दिर सी दशा को भाषा प्राप्त हुई, सैलानी दिल घबराने लगा, उँगलियाँ कलम उठा कहने लगी कि अरे न सोलह आने तो खैर पाई ही सही, पर कुछ न कुछ करतूत कर अपने भाषा के रसिकों को आश्वासन देना अवश्य?

शाबाश! शाबाश!! एकबारगी दून की डींग! अच्छा कुछ और सुनूँ।

कृपानिधान! मैं आप को ऐसा अज्ञान न जान कर सुजान को सैन और "दाना राह शारा काफ़ी" समझा था, पर आप तो पूंछ २ के इस पचड़े में समस्त पत्र रंगवाया चाहते हैं! कहैं न तो भी न बनै, अच्छा तो सुनिये! पर अब न कुछ छेड़छाड़ करना; देखिये! यह तो आप पर भली भाँति विदित होगा, कि समस्त प्रकार के देश का हितसाधन और उद्योग, विषयक शिक्षा और सूचना के प्रस्ताव, विविध विद्या, और राजकीय देशीय विषय व्यवस्था नीति और धर्म इत्यादि पर लेख राय, खबर, अनुवाद प्रकरण, यह एक साधारण समाचार पत्रों का धर्म है, पर मैं इस लिये कि अभी बालक हूँ! अतएव बहुधा कार्य मैंने, अपने और बन्धुवर्ग को बाँट दिये और बहुतों को जो बहुतों ने अपना लिया, तो मैंने भी "दखल दर्माकूलात" देना अनङ्गीकृत किया, जैसे कि हिन्दी प्रदीप को देशोन्नति, राजा और प्रजा विषयक प्रस्ताव, निद्वन्द मन आजादी से राय देना और भारत मित्र, भारतबन्धु, सारसुधानिधि, विहारबन्धु, कविवचनसुधा, मित्रविलासादि भी बहुधा पूर्वोक्ति विषय नाम और शेष निज विषयों से पूरित रहते हैं।

पर मैंने यह चाहा है कि जहाँ तक हो, अवश्य अनूठेपन को काम में लाऊँ, अभी जब तक शिशुता है तब तक (अनाप शनाप सब से वास्ता रहेगा, और कदाचित् इससे रासिकों को पूर्ण रूप तृप्त न कर सकूँ पर तो भी किशोर हो अवश्य सन्तोष करने की अभिलाषा रखता हूँ।