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आनंद कादम्बिनी का प्रथम प्रादुर्भाव

धन्य है वह भगवान, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द धन परमात्मा! जिसकी कृपा से आज बहुत दिन की इच्छा के प्रकाश, और रेपू करने का अवसर हमे मिला, अतएव उस इष्ट देव को कोटि कोटि धन्यवाद के उपरान्त अपने देश के हितैषी, और स्वदेश भाषा के उन्नति चाहने वाले, तथा इस पत्र के शुभाकाँक्षी, रसिक महाशयों को, इस पत्र सम्पादक और प्रकाश करने वालों की ओर से अत्यन्त नम्रता और विनय के संग निवेदन है, कि आप लोगों में से कितने महानुभावों को स्मरण होगा, कि प्रथम यहाँ रसिक समाज के रसिकों को बड़ी उल्कण्ठा थी कि, इस उत्तम नगर में कोई नागरी भाषा का ऐसा पत्र निकले, कि जिसके द्वारा इस भाषा का जौहर दिखाया जाय, और उक्त समाज के सभ्यों के वचनामृत की वर्षा कर दूर दूर के प्रेमियों को सुखी करे; और एक हिन्दी भाषा में पञ्च "प्रहसन पत्र" निकालने के लिये बड़े धूमधाम से विज्ञापन 'कविवचन सुधा' आदि पत्र में दिया, और सौ ग्राहक हो जाने पर प्रकाश करने की प्रतिज्ञा की थी पर पंच को पंचप्रपंच जान के केवल पञ्च ग्राहकों के स्वीकार पत्र आये और इसी प्रपंच में पंच का प्रपंच ज्यों का त्यों रहा, फिर बराबर दिल का तकाज़ा कलम से होता रहा, कभी प्रेस ऐक्ट के डर से डराते, और कभी अपने देश भाषा के समाचारपत्रों की दशा दिखलाते और समझाते।

निदान इसी तरह नाना प्रकार की बातों से बहलाते, और फुसलाते, पर वह काहै सुनता, अपने को यह ठहरा कि खैर! न पंच सही साधारण समाचार पत्र सही, न समाचार पत्र तो माहवारी रिसाला या मेगज़ीन ही सही पर कुछ न कुछ खुराफात करना जरूर।

इस अपूर्व वर्षा ऋतु के आदि सावन सुहावन में आनन्द कादाम्बिनी पर कौन अरुचि कर सकता है, पर यह तो बताइये कि आप किस मनोरथ पर ऐसे उद्यत हुये हैं? और कौन सी इच्छा के मनसूबे पर यह फूँ फाँ है, यों तो गिन्तियों के लिये बहुत से पत्र हई हैं, अपनी सी गति गाते चले ही जाते हैं, समग्र प्रकार के जो उन्हें लाभ का नाम और हानि के काम से काम रहता है, उससे भी आप अनश और नावाकिफ फिर क्या समझे जो यो एक