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प्रेमघन सर्वस्व

"प्रथम तुमको अपनी नटी से इस विषय में सम्मति करनी चाहिये क्योंकि दम्पति की सम्मति बिना संसार का कोई काम भली भाँति सम्पन्न नहीं हो सक्ता" (सकता को सस्ता न लिखिये) अब देखिये तो नटी और नट दोनों में से एक का प्रवेश महा व्यर्थ है विशेषतः नट का।

अब कुछ कवि के मुहावरे और उस के पद रचना के ढंग को भी देखिये। [पृष्ट ५] नट। 'प्यारी का मुखचन्द निहारने, (वाह) फिर नटी से "संयोगिता-स्वयम्बर के अभिनय का विचार है। इसलिए तुम अपनी स्वाभाविक रसिकता से उसके सरस करने का उपाय करो" भला यह लिखावट और नाटक की, आगे देखिये॰ नटी॰ "कृपा करिये! संयोगिता प्राणनाथ के विरह में व्याकुल है और हंसी (नहीं हँसनी) के समान करनाटकी पृथ्वीराज के गुण-मुक्ता धारण करके अपने वर्णन की वायु से उसकी विरहाग्नि को रात दिन बढ़ाती रहती है" ग्रन्थकार अपनी कविताई अवश्य दिखाना चाहता है, चाहे उपमानोपमेय की जान क्यों न निकल जाय, चाहे रूपकालंकार कुरूपकान्धकार हो क्यों न कलकै पर ल्याया जाय ज़रूर। भला मैं पूछता हूँ कि कहाँ नटी, कहाँ संयोगिता और फिर कहाँ करनाटकी और कहाँ हँसी, फिर पृथ्वीराज के गुण सुक्ता, और उसका धारण कैसा? फिर वरणन (क्या और कैसा?) की वायु (वाह) से कैसी और उसकी विरहाग्नि कैसी? प्रेम के प्रादुर्भाव और संयोगोत्कराठा के प्रथम कवि वियोग ही का मजा चखाता है। श्रागे फिर कहती है कि "श्राप थोड़े दिन के लिए परदेश पधारे थे उस समय की विरह वेदना मैं अब तक नहीं भूली, ईश्वर की कृपा से मैं इस समय आपकी कण्ठाभरण हैं परन्तु आपके निकट होने पर भी इस वर्षा ऋतु में विचारी संयोगिता की दशा देख कर उस समय के स्मरण से मेरा हृदय काँप उठता है।" (अब इसकी लिखावट अर्थभाव और दंग पर रसिक जन विचार कर सकते हैं, मानो कोई उन्मत्त बात करता है, कभी कुछ और कभी कुछ॰) अब उसका काल देखिये किस मौके से आता है ॥राग बागेसरी॥ "कारे कारे बदरन चपला चमकै पिय के अंक दरस दुरि जाई। (यह क्या) कामिन (नहीं बिरहिन लिखिये) नैनन अँसुमा वरसै धरक धरक हियरा अकुलाय। (खूब) स्वास (श्वास राखिये या सांस) समीर सरिस झकझोरत डरप डरप जियरा लरजाई। (क्या कहना है) पिऊ-पिउ रटत पपहिया पापी तड़प तड़प हियरा विनसाई" (अहा हा हा! पर कै जगह हियरा विनसाइयेगा) भला तुकान्त में यकार से रकार में क्या गुण समझा गया? शायद इसी गान के लिए