पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४५७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२५
संयोगिता स्वयम्वर और उसकी ओलोचना

नान्दी

[प्रथम छन्द] (दीन जान) इसी तरह ऐसे स्थान पर हस्वईकार की मात्रा कहीं नहीं दिखाई पड़ती। जैसे दूसरे छन्द में "कर करुण" "वहाँ ते बुन" माना कि उर्दु का अनुकरण कर वा दिल्ली की बोली में इसका ख्याल न हो परै छन्द में प्राचीन कवियों के मुहाविरे और ब्रजभाषा की कविता की वह कैद माननी होगी जो आज तक मानी गई, अतः 'जान' को 'जानि' 'कर' को 'करि', 'चुन' को 'चुनि' लिखना चाहिए।

[दूसरा छंद] पहिले तो यही नहीं ज्ञात होता कि बन्दना किससे की गई। यदि निराकार ब्रह्म की है तो (पदनखचन्द) कैसा? और यदि साकार देव है, तो नाम अवश्य चाहिये, फिर देखो छन्द है कि "हे स्वामी माया तिमिर रह्यो सकल जग छाय। कर करुना ताको हरो पद नख चन्द्र देखाय"। (चाहे तुक बदलै, पर चन्द्र को छन्द में चन्द लिखना चाहिये) फिर "बहुरि कृपा कर जगत वाटिका की तम नासो" यह पुनरुति कैसी? योंही "तब का विकशित (शाकार को भाषा छन्द में सकार लिखा कीजिये) कुसुम (किस कारण से और कौन कुसुम) वहाँ ते चुन अभिरामी। सजन मधुप प्रमोद करों तिनतें हे स्वामी"।

जब आपके स्वामी इतना बखेड़ा करैं तब आप सजनों को प्रमोद करें। यदि अनुस्वार ग़लत है, तो स्वामी काहे के सेवक हुए। फिर जरा “प्रमोद करो" को देखिये! यहाँ प्रमोदित चाहिये। कवि वेणीसंहार के नान्दी और सभा पूजा का आनन्द) लाना चाहता था, परन्तु कालिदास के कथनानुसार कैसे छोटे हाथों से बड़ी वस्तु मिले।

[उसी आदि पृष्ट में] "नट! आकर (वाह! क्या जबर्दस्ती घुस पड़ता है) फिर पारिपार्श्वक के स्थान पर नट का लिखना कैसा? "आपने और तो सब कुछ कहा..." एक ही बात तो कहा था।

[पृष्ट ४] सूत्रधार ने बहुत ही ठीक कहा कि—"इस नाटक में और कोई गुण हो अथवा न हो (लेकिन या, परन्तु तो लिख देते) नवीन रचना होने से यह सज्जनों को अवश्य रुचिकर होगा ऐसा ही है। आपने नट के पूछने पर नाटक के गुणों के व्याख्यान में बताया "अभिनय कर्ता अपने चित्त पर पूरा अधिकार रख सकता है" खूब फिर तो योगियों को योग त्याग कर इसी का अभ्यास करना चाहिये। अब दो आदमी से प्रस्तावना न हो सकने या नीति उपदेश के अर्थ आप नटी के प्रवेश के लिये यो मति है कि-सूत्रधार