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प्रेमघन सर्वस्व

बहुत विस्तार के भय से उसे छोड़ केवल ग्रन्थ पर अपनी खरी और यथार्थ सम्मति प्रकाश करना चाहते हैं, जिससे न हमारी यह इच्छा है कि अन्यकर्ता व उसके अनुरागी और खुशामदी समालोचकों का दिल दुखे, परन्तु हाँ, यह अवश्य कि ग्रन्थ का यथार्थ भेद जान पड़े। इसमें सन्देह नहीं कि कथा वा बीज इसका बहुत ही उत्तम था और अन्य ग्रन्थों से सहायता भी यथोचित मिली (बल्कि हम भी इसे नाटक रचना के योग्य सोचते थे ग्रन्थ पाते ही प्रसन्न हुये कि बेमिहनत मतलब मिला) परन्तु ग्रन्थ प्रबन्ध और नाटक रचना इसकी बिल्कुल ही निकम्मी निकली।

नाट्य रचना के बहुतेरे दोष हिन्दी प्रदीप ने अपनी 'सच्ची समालोचना' में दिखलाये हैं। अतएव उसमें हम विस्तार नहीं देते; हम केवल यहाँ अलग अलग उन दोषी को दिखलाना चाहते हैं कि जो प्रधान और विशेष है। यदि यह संयोगिता स्वयम्बर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयम्बर कान रखना मानों इस कविता का नाश कर डालना है, क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय है; और अभिनय में मुख्य आनन्ददायी, एवम् कवि के कविता दिखाने का मौका है, न एतबार हो तो रघुवंश, अनेक रामायण, सीता स्वयम्बर आदि में देख लीजिये। फिर इसमें कथा की दो प्रणाली थी अर्थात् मुख्य द्वेष दूसरी प्रीति सो प्रथम तो कवि ने निःशेष ही कर डाला और दुसरीका उचित रीति से निर्वाह न कर सका पूर्वानुराग का तो नामही नहीं लिया, नायिका की प्रीति की कहीं फलक ही नहीं दिखाई, दिखाई भी तो बहुत ही बेहूदे तरह करनाटकी का प्रवेश किया परन्तु आशय और उद्योगा ऐसा गुप्त रहा कि नहीं के बराबर हुआ।

रस इसमें प्रधान दो थे, वीर और शृङ्गार अङ्गी कौन है, यह कौन कहे? सच तो यह है कि कोई रस कहीं पर उत्तमता से उदय नहीं हुआ, चित्त का चित्र किसी का ठीक नहीं उतारा गया और जहाँ इसका उद्योग भी किया। वीर को हिंजड़े की पोशाक पिन्हाई और सती वा स्वकीया को वेश्याओं के शृङ्गार कर दिये। जहाँ शृङ्गार का काम पड़ा, आपने नीति और धर्म का उपदेश दिया, जहाँ बीर का मौका आया, वीभत्स किया; निदान साधारण रीति से ग्रन्थ के अन्य अङ्गों की छवि दिखाना चाहते हैं। उसमें भी यदि हम शब्दों की छोटी-छोटी भूल पर या छन्दों की बनावट के दोषों को दिखावें तो प्रति पंक्ति नहीं तो प्रति पृष्ठ तो कोई सर्वोश शुद्ध न मिलेगा, परन्तु हम उन्हें केवल लिखेंगे जो मुख्य हैं।