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संयोगिता स्वयम्बर और उसकी आलोचना

यह ऐतिहासिक नाटक श्री लाला श्रीनिवास दास जी कृत, सारसुधानिधि यन्त्र में मुद्रित पंडित सदानन्द मिश्र द्वारा प्रकाशित जिसका मूल्य↑⇗) है भारतेन्दु द्वारा मुझे समालोचनार्थ मिला।

इस पुस्तक की समालोचना करने के पूर्व इसके समालोचकों की समालोचनाओं को समालोचना करने की आवश्यकता जान पड़ती है। क्योंकि जब हम इस नाटक की समालोचना अपने बहुतेरे सहयोगी और मित्रों को करते देखते हैं, तो अपनी ओर से जहाँ तक खुशामद और चापलूसी का कोई दरजा पाते हैं, शेष छोड़ते नहीं दिखाते। इसे यदि खुशामद न मानी जाय तो यह अनुमान हो कि न वे केवल नाटक विद्या और पुराने कवियों के काव्य ही से अनभिज्ञ हैं, किन्तु कदाचित् भाषा वा हिन्दी को भी भली भाँति नहीं जानते; क्योंकि वे इस चद्र ग्रन्थ की रचना पर मोहित हो रचयिता को भाषा के वाल्मीक, भाषा के कालिदास और भाषाचार्य कह डालते, और श्री हरिश्चन्द्र के तुल्य भारतेन्दु पद के योग्य ठहराते हैं। हम केवल हरिश्चन्द्र ही के विषय में पूछते हैं कि भला उनसे इनका क्या सम्बन्ध है? परन्तु जब लोग इन्हें वाल्मीक और कालिदास कह डालते हैं, तो फिर हरिश्चन्द्र तो कोई बात ही नहीं, कहावत है कि "जो शालिग्राम को भून खाएँ उन्हें बालू भूनते क्या" कदाचित् उन लोगों को मालूम नहीं है कि वाल्मीक और कालिदास क्या थे, नहीं वे कदापि ऐसा न लिखते। परन्तु जो उन्हें अपना प्रातस्मरणीय मानते हैं, उनसे क्या चारा है वे उन्हें अपना यावज्जीवन स्मरणीय भाने रहै, परन्तु किसी खास वास्ते या सबब से सब संसार को धोखा न दें, और अन्थकारों को उत्साहित करने के बदले उनका इतना अभिमान न बढ़ा देखें कि वे सचमुच अपने को. बाल्मीक और कालिदास मान बैठे। कौन जाने कि इन्हीं झूठी प्रसंशात्रों से ग्रन्थकार सचमुच अपने को भाषाचार्यमान, मानहानि की प्रान मन में आप, किसी अन्य इस विद्या के ज्ञाता को भी ग्रन्थ नहीं दिखा सका, नहीं तो हर तरह की ऐसी भद्दी गलतियाँ न दिखलाई देती, परन्तु हम

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