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भारतीय नागरी भाषा

लोकभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा थी। दूसरा समय वह था जब इस के जाननेवाले केवल कहीं कहीं कुछ बचे थे और प्राकृत राष्ट्रभाषा और राजभाषा थी। फिर जो समय ने पलटा खाया तो प्राकृत बिगड़कर अनेक अपभ्रंशों में विलीन हो गई और संस्कृत पुनरपि विस्तृत हो सारे देश में प्रधान साहित्यभाषा और धर्म की भाषा बन गई और बौद्ध धर्म के साथ ही मानो प्राकृत का नाम भी भारत से जाता रहा। दूसरा समय राजभाषा का आया किं जिसे पिछले दिनों की एक प्रकार संस्कृत के नीचे की उपराष्ट्र भाषा कह सकते हैं। क्योंकि संस्कृत और प्राकृत के पीछे यहाँ क्या धार्मिक ग्रन्थ और क्या साहित्य के अन्य अंगों की भी यही प्रधान भाषा थी। भारत के प्रायः सबी प्रान्तों में इस का कुछ न कुछ प्रचार अद्यावधि वर्तमान है, विशेषतः मध्य देश में तो मानों इसका आज भी राज है। और जीवित भाषा रूप से यह एक बड़े भाग में व्यवहृत हो रही है। यदि संस्कृत प्राचीन साहित्य सिन्धु है, तो यह भा सिन्धु नदी है। यदि उस का सम्बन्ध हम से अटल है, तो इस का भी अनिवार्य है। यदि उसमें हमारे प्रातः स्मरणीय पूर्वज असंख्य अमूल्य रत्न भर गये हैं, तो इस में भी बहुमूल्य छोड़ गये हैं। उसका अवहेलन करते जो आज हमारे अनेक भाई दिखलाई दे रहे हैं। वे बहुत ही बेतरह बहक रहे हैं। इस का निरादर कर वे पीछे पछतायेंगे और उसी चने को खायेंगे। दूसरे सूर, तुलसी, बिहारी और देव को दे कहाँ पायेंगे कि जिन्हें ब्रह्मा ने अनूठे बनाये थे। अवश्य हमारी साम्पतिक नागरी भाषा वृद्ध्युन्मुख है। वह और अंशों में चाहे कितनी ही उन्नति क्यों न कर ले, परन्तु इस में सन्देह नहीं कि वह अब ऐसे महाकवि न पायेगी' वरञ्च इन्हीं के अभिमान पर सदा सतरायेगी और इन्हीं के भोले भावों से मुस्कुरायेगी। वैसी माधुरी इस में कदापि आनेवाली नहीं, कि जिसे उन्होंने जन्म भर खूनेजिगर पी पी कर जमा की है। यह भाषा उन के समय ही की है, उन्होंने भी इस की चाभी ली, पर चीख चीख कर छोड़ दिया। मुसलमान सुकवियों, ने भी जो प्रारम्भ ही से इस भाषा के सँवारने और सुधारने में लगे रहे, भाषा की कविता के योग्य उसे न समझा। उनकी कविता शक्ति भी हमारे देशी सुकवियों से न्यून न थी, पर जब उन्होंने भी भाषा के लिखने को लेखनी उठाई, तो उसी प्राचीन शैली का अनुसरण किया।

जैसे कि सब से प्राचीन प्रसिद्ध मुसलमान कवि खुसरू की यह पारसी और भाषा की मिलावट की मशहूर गाल