दो॰—परबत समुंद अगम बन बीहड़ घन अरु ढाख।
किमि करि भेटौं कंत, तुम ना मोहिं पाँव न पाँख॥
गोस्वामी तुलसीदास—
चौ॰ जननिहिँ बिकल बिलोकि भवानी। बोली युत विबेक मृदु बानी॥
अस विचारि सोचहु जनि माता। लो न टरै जो रचै बिधाता॥
करम लिखा जो बाउर नाहू। तौ कत' दोष लगाइय काहू॥
तुम सन मिटहिँ कि विधि के अंका। मातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका॥
छ॰—जानि लेड मातु कलंक करुना परिहरहु अवसर नहीं:
दुख सुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं।
सुनि उमा पचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति विधिह लगाइ दूषन नयन बारि विमोचहीं
अबदुरहीम खानि खानान्—
बरबै—का बढ़ि भयउ सेमरवा फूल्यो फूल।
जौ पै स्याम भँवरवा नहि अनुकूल॥
दूटि टाट घर टपकत खटियो टूटि।
पिय कै बाँह उसिसवाँ सुख के लूटि॥
हमारी भाषा का तीसरा रूम, जिसे उनकी यौवनावस्था कहेंगे, यही वर्तमान रूप है, जिसके चार वा पाँच भेद हम ऊपर कह पाये हैं और जिसका प्रारम्भ समय ईस्वी को उन्नीसवीं शताब्दी बतलाया जाता है। किन्तु हम जब विचार करते हैं तो यद्यपि इसके गद्य का ग्रन्थ इससे पूर्व का नहीं पाते, तौभी जो पुराने पद्यों में इस भाषा का रूप हमें मिलता है, वह इस बात का साक्षी है कि यह भाषा उस समय से बहुत पूर्व प्रचलित हो चुकी थी। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो उनके काव्य में इसकी झलक न श्रातो, योही जिसका सबसे अधिक पुष्ट प्रमाण तो उर्दू भाषा ही है, क्योंकि विदेश' शब्दो के बाहुल्य को छोड़ हमारी वत्त मान भाषा से उसमें और तो कुछ मेद हुश्रा नहीं है।
उदाहरण जैसे कबीर
मन का फेरत दिन गया गया न मन का फेर।
कर का मन कानड़कर मन का मन का फेर॥