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प्रेमघन सर्वस्व

चौंकत सी सब ओर विलोकत संक सकोच रही मुख मौने।
यों छवि नैन छबीलो के छाजत मानो विछोह परे मृग छौने॥

योंही राजा वीरबर के मरने पर उनके शोक में उसका बनाया यह सोरठा है—

"सब कछु दीनन दीन, एक दुरायो दुसह दुख।
सोउ दै हमहिं प्रवीन, नहिं राख्यो ऋछु बीरबर॥"

राजा बीरवर अपनी वर्षगांठ पर सर्वस्व दान कर देते थे। युद्ध पर जाते समय भी सब कुछ दान कर गये थे।

सारांश अकबर का शान्त राज्य हमारी भाषा का मानो स्वर्णमय युग था। जितने अच्छे कवि उसके समय में हुए, फिर न हुए। विद्या प्रेमी राजा होने से विद्या का प्रचार और साहित्य की पुष्टि होती ही है। उसके सुयश को सुनकर सर प्रकार के गुणो दूर दूर देश और प्रान्तों से आकर एकत्र हो गये थे। फ़ारसी की भी उसके समय में बहुत उन्नति हुई। फ़ैज़ी और अबुलफ़ज़ल आदि उस के दरबार में एक से एक धुरन्धर विद्वान बड़े सन्मान को पाकर उस भाषा में अनेक बहुमूल्यरत्न भर गये और संस्कृत के भी अनेक अमूल्य रत्नों को पारसी भाषान्तर के रूप में संग्रह किये। उसके प्रधान राज्याधिकारी और पार्षदों में भी उस से न्यून विद्या प्रेमी न थे। राजा बीरबर ही ने केशव दास को एक कवित्त पर कई लाख रुपये देने चाहे परन्तु उसने नहीं लिया। वह कवित्त जो उन की प्रशंसा में था, यों है,—

"पावक पच्छी पसू नग नाग, नदी नद लोक रच्यो दस चारी।
केसव देव अदेव रच्या नर देव रच्यो रचना न निवारी॥
रचि के नर नाह बली बरबीर भयो कृत कृत्य महा व्रत धारी।
दै करतापन आपन ताहि दियो करतार दोऊ करतारी॥"

जयपुराधीश महाराज मानसिंह ने भी इस दोहे को सुन तीन बार पढ़ः— कर ३ लाख रुपये दिये थे।

बलि बोई कीरति लता करन करी है पात।
सींची मान महीप ने जब देखी मुरझात॥"

वास्तव में राजा का मत्कार कवि के उत्साह का हेतु होता ही है। यदि विक्रम वा भोज न होते, कालिदासादि के काव्य में यह अमृत न टपकता। यदि महमूद ग़ज़नवी प्रत्येक शेर के लिये एक अशर्फी फ़िरदौसी को देने न