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प्रेमघन सर्वस्व

उपदेश का होना भी कठिन था। राजा का सहारा पाकर बौद्धमत सारे भारत में व्याप्त होगया। जैन धर्म के घन भी धुमड़कर घिर रहे थे। ब्राह्मणों के प्राणों के लाले पड़ रहे थे। जैसे आज उर्दू के प्रबल अधिकार से हिन्दी कोनों में दुबक दुबक कर छिपी जीवन धारण कर रही है, संस्कृत भी प्राकृत से दबी छिपी अपनी पाण रक्षा कर रही थी। तौभी सनातन धर्म के सबी ग्रन्थ संस्कृत ही में होने के कारण नवीन धर्म्मावलम्बी जन, प्राचीन धर्म के खण्डन और स्वमत मण्डन के अभिप्राय से, उदार जन, साहित्य परिज्ञान और उसके अनुयायी, धर्म ज्ञानार्थ उसे कुछ न कुछ सीखते समझते हो रहे।

निदानं उस देववाणी वा वेदभाषा त्रिपथगा को इह लौकिक धारा वैदिक अपभ्रंश-प्रकृत-गङ्गोत्तरी से, जो आपयाकृत नाम्नीगङ्गा वही,तो जैसे सुरसरिता क्रमशः अनेकनाम और रूप धारण करती कोड़ियों नदी नद को अपने में लीन करती भारत भूमि के प्रधान भागों को उपजाऊ बनाती, सैकड़ों शाखाओं में बँट कर समुद्र से जा मिली, और जैसे गङ्गोत्तरी से चल कर प्रयाग तक जाह्नवी अपनी श्वेतधारा और सुधास्वादु सलिल के रूप और गुण को स्थिर रख सकी, किन्तु यमुना से मिल कर वर्ग में श्यामता और गुण्ठ में वातुलता ला चली; उसी प्रकार आप प्राकृत भी हिमालय से लेकर कुरक्षेत्र तक आते अपने रूप और गुस्स को स्थिर रख सकी। इसके पीछे जनपद विस्तार क्रम के अनुसार इस के रंग रूप और गुणों में भेद हो चला, तौभी भागीरथी के तुल्य उसकी प्रधान शाखा महाराष्ट्री की प्रधानता प्रारम्भ से अवसान तक बनी ही रही। महाराष्ट्र शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं है। किन्तु भारत रूपी महाराष्ट्र से हैं। देश विशेष की भाषायें इसकी शाखा स्वरूप दूसरी ही हैं। जैसे कि—शौरसेनी,आवन्ती, मागधी आदि। विश्वनाथ कविराज ने[१] बहुतेरी भाषाओं के नाम बतलाये हैं, जिनमें अधिकांश प्रायः प्रधान प्राकृत हो के भेद हैं और जिनकी सन्तति आज भारत की प्रचलित समग्र प्रान्तिक भाषायें हैं। यथा पञ्जाबी, गुजराती, मराठी, बंगला इत्यादि।


  1. संस्कृत १ प्राकृत २ उदीची ३ महाराष्ट्री ४ मागधी ५ सिङ्धार्द्ध मागधी ६ शंकाभीरी ७ श्रवलो ८ द्रविड़ ९ औड़ीया १० पाश्चात्य ११ प्राच्या १२ बाख्हीका १३ रन्तिका १४ दाक्षिणात्य १५ पैशाची १६ आवन्ती १७ शौरसेनी १८ इनके अतिरिक्त और भी अनेक नाम प्राकृतों के पाये जाते हैं।