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कजली की कुछ व्याख्या



मैं तोसे पूछौं, सँवरी गोबिंदिया! काहे तोसे बिगड़ा रे बामनवाँ?

८—भद्दी तुकबन्दी, जैसे पूर्वोक्त फटका आदि, वा अन्य अश्लील शब्दों वा भावों से भरी रचना को कहते हैं। यथा स्थानिक पं॰ बेणी प्रसाद तिवारी की,—

गोरिया पट बाज तूँ निकलिउ कुल में दाग लगौल्यू ना।

९—स्वतन्त्र कविता वह है कि—जो किसी विशेष विषय पर किसी कवि ने कजली के धुन में अपनी मनमानी कविता की हो चाहे वह किसी भाषा वामान की क्यों न हो, तौभी उसके ज्ञाता सहृदयों की मनहारिणी हो। जैसे हिन्दी प्रदीप सम्पादक पं॰ बालकृष्ण भट्ट रचित—

टिकस लागा रे कस कसके छोड़ो अपमा रोजगार।
टिक्कस लागल आये न बादल पागल सब संसार॥
अथवा जैसे माननीय पं॰ मदनमोहन मालवीय कृत—
आवो गावो रे कजरिया बोलो साँच-साँचे बोल।
लिबरल दल की विजय भई है मिटिगा डावाँ डोल।
शिमला छाडि विलायत भागे लाट लिटिन बंबोल॥
अथवा जैसे साहित्याचार्य पं॰ अम्बिका दत्त व्यास—
प्यारे होकर हिन्दुस्तानी बाबू अंगरेजी मत बोल।

हाऊ डू यू डू, हाऊ डू यू डू कह क्यों होता है डांवाडोल। इत्यादि॥

इसमें सन्देह नहीं कि कजली का गाना, बनाना, इसके यथार्थ भाव और उसकी बनावट की बारीकी अथवा उसमें सफलता और अकृतकार्यता का समझना समझाना कुछ इसी नगर वा प्रान्त के लोग जानते, दूसरे स्थान क मनुष्य बहुत श्रम और यत्न करने पर भी इसकी सीमा से कोसों ही दूर पड़े रह जाते हैं। जैसे कि ठुमरियाँ दूसरे-दूसरे नगर और प्रान्तों के लोग भी बनाते और गाते, तौभी जो अनूठापन लखनऊवाले लाते, वे उसे कर पाते हैं। कारण यह है कि ठुमरी की भाषा और भाव को, जो दोनों सामान्य गीतों से सर्वथा विलक्षण हैं, वे नहीं जान सकते। उसकी ऋविता की शैली और केंडे, धुन की खपत एवम् उसमें कुतकार्यता को जैसा कि वे समझते है, दूसरे नहीं समझ सकते विशेष कर वह भाषा तो दूसरों को सर्वथा दुर्लभ है! सनद, मकसूद, अखतर, कदर और चाँद वा बिन्दादीन आदि की ठमरियाँ बड़ी प्यारी और रस भरी हैं। यद्यपि वहाँ के आधुनिक ठुमरी बनाने