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कजली की कुछ व्याख्या

और इसकी आदर वृद्धि के साथ साथ बनानेवालों की रुचि और योग्यता के अनुसार इसमें बहुत बड़ा अन्तर पड़ता चला जाता है। लोगों ने यषि संस्कृत, बङ्गला, उर्दू, पारसी, वरच अंग्रेज़ी से भी कजलियाँ बना डाली हैं। किन्तु से कजली नहीं कही जा सकती। हाँ, गीतों की सामान्य भाषा अथवा नागरी वा ब्रजभाषा का सुहाता और उससे मिलता मेल, योही कदाचित कुछ पुट्ट उर्दू का भी दे देने तक इसकी शोभा नहीं बिगड़ती, किन्तु बुद्ध इन्दी भाषायों में इसकी रचना उसे विकृत और विरूप बना देती है।

५—भाव—भी ग्राम्य ही रहने में इसकी स्वाभाविकता रहती है। विषय केवल स्त्री जनोचित सुगम और सीधा, प्रायः उन्हीं से सम्बन्ध रखता हना होना अधिक उपयुक्त होता है। रस—इसमें प्रधानतः शृङ्गार और आवश्यकतानुसार सामान्यतः करुण, हास्य और वीर तथा कुछ कुछ शांत अर्थात् भक्ति दैन्य आदि का भी मेल अनुपयुक्त नहीं होता। किन्तु शुङ्गार के रतराज होने से उसके ल्याने में बहुत सावधानी सापेक्ष्य होती, अन्यथा रसाभास होने से आनन्द के स्थान पर जुगुप्सा का हेतु हो जाता है। अलंकार भी इसके सामान्य ही सुहाते हैं।

६—रचना प्रणाली—इसकी अति नियमित स्त्रियों के गाने योग्य ही होनी चाहिए। बहुत अहस की जोड़नी नितान्त भोडी जँचती है। किन्तु जिस प्रकार इसके छन्द वा लय में अनेक भेद देखे जाते, रचना में भी इसके कई भेद है, अर्थात ग्राम्य और नागरी, जनानी और मर्दानी, सादी, सुधी और बिगड़ी। इसमें भी उत्तम मध्यमादि भेद से कई और विभाग किये जा सकते हैं, योही कई और अंशों में कई। सुतराम् संक्षेप से समझाने के अर्थ पदि हम उनके कल्पित नाम रख दें, तो यों कह सकते हैं, अर्थात्कजरी, कजली, उजली; योही कजरा, कजला, उजला; लगनी, भद्दो, तुकबन्दी और स्वतन्त्र कविता वा प्रबन्ध।

(१) कजरी वही है, जो कि सामान्य ग्राम्य गीत प्रारम्भ में बनी और अभी तक उसी रूप में वर्तमान है। अथवा यो समझिये कि जो किसी वर्तमान लय का सबसे प्राचीन रूप लभ्य होता और जो सब दोषों से अछुता अद्यारि वर्तमान है; जो ग्राम्य स्त्रियों के द्वारा रचित, उन्हीं के अनोखे मनोभायों से भरी, उन्हीं की छुट्ट भाषा और स्वाभाविक लय में वर्तमान और उन्हीं में अद्यावधि प्रचरित है; जो केवल गवई गाँव की दुनमुनियाँ खेल के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं सुनी जाती। यथा