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प्रेमघन सर्वस्व

(४) भाषा (५) भाव और इसकी (६) रचना प्रणाली में भी विलक्षणता है। किन्तु स्थानाभाव के कारण यहाँ संक्षेप ही से कुछ कहना इष्ट है।

१—राग रागिनियों से इसका कोई द्दढ़ सम्बन्ध नहीं है, क्योकि यह नवीन ग्राम्य गीत है। धुन इसकी ठुमरियों से भी अधिक बेठिकाने है, क्योंकि प्रायः एकही प्रकार की कजली में गानेवालों के विभेद से गाने का क्रम भिन्न भिन्न है। इसी से प्रमाणित लय प्रायः स्त्रियों विशेषतः ग्राम्य नारियों ही की मानी जा सकती है। यद्यपि जिस लय को सारंगी नेटीकार किया है, उसमें भी प्रायः विभिन्नता है, क्योंकि सारंगी बजानेवाले भी वास्तविक धुन से इधर उधर चलते फिरते हैं, तो भी जो मुख्य मुख्य भेद की कजलियाँ हैं, उनमें बहधा मलार ही के मेल से कुछ घनिष्ट सम्बन्ध है; यद्यपि कैयों में कई अन्य रागिनियों यथा—गोंड़ मलार, देस, सिन्ध, जँगला, बरवा, पीलू, झिझोटी, इमन, तिलक-कामोद, बिहारी और पहाड़ी आदि के भी स्वर लगते हैं।

जब कोई राग नहीं, तो ठीक ठीक स्वर का भी निरूपण कैसे हो? हाँ, भिन्न भिन्न लय और धुनों में भिन्न भिन्न रागों के सुरों के मेल का निरूपण करना सम्भव है, किन्तु यहाँ व्यर्थ बाहुल्य और निष्प्रयोजनीय हैं; क्योंकि यह गाने से सम्बन्ध रखता है और वह भी गानेवाले की योग्यता और उसकी इच्छा पर निर्भर है।

२—ताल का भी यही हाल है। कोई विशेष ताल इसके लिए नियत नहीं है। अधिकांश कजलियों में प्रायः तीन ताल बजता है, किन्तु कछ में कहीं कहीं खेमटा आदि अन्य ताल भी बदलते हैं।

३—छन्द वा प्रस्तार के विषय में भी कुछ विशेष वक्तव्य नहीं है। क्योंकि गीतों का प्रायः छन्दों के अनुसार प्रस्तार का क्रम स्वतः नहीं है, वे गाने में केवल ताल ही से तोल ली जातीं। सुतराम् अनेक प्रकार और भेदों की भिन्न भिन्न तालों के धुन में खपते कैडे बा उनके स्वतन्त्र सांचे के अनुसार बनानेवाले रचते और वही क्रम यथेष्ट है। कोई चाहे तो मात्रायें गिनकर भी, शुद्धि की जांच कर ले सकता है।

४—भाषा-इसकी प्रधानतः कन्तित, अर्थात् विन्ध्याचल वा मिरजापुरीय ग्राम्य स्त्रियों की बोलचाल ही की होनी चाहिये, क्योंकि वही स्वाभाविक और उपयुक्त है, जैसे कि होली की ब्रजभाषा। किन्तु अब समय के फेर