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कजली की कुछ वलयाकार

का आरम्भ भी मानना चाहिये, जो फिर और कई श्रेणी के गानेवालों के भेद ले कई प्रकार के सूक्ष्म लय की विभिन्नता धारण कर विशेष विलक्षणता को प्राप्त होती है। इसी से हमने निज कजली की पुस्तक में एकही लय की कजलियों को भी कई पृथक् पृथक भेदों से विभाजित किया है।

इसका क्रमशः परिवर्तन यो समझना चाहिये कि गृहस्थिनों के गाने से मधुरी लय (४) गवनहारिनों की होती, जिनके दो भेद है—एक तो मीरासिनों के स्थानापन्न वे नीम-बद-चलन अथवा बराय-नाम गृहस्थिने जो गाने का पेशा करतीं और उत्सवादि पर प्रायः सहस्थों के अन्तःपुर वा जनानखानों में गाने को बुलाई जाती और जो यद्यपि ढोलकी मजीरे ही पर गाती, तौभी औरों के अनुकरण से अपना गाना सामान्य गृहस्थिनों से विलक्षण कर डालती हैं। दूसरी वेगवनहारिने कि जो एक प्रकार की निम्नश्रेणी की वेश्या या (५) खानगी[१] जिन्हें पछाँह वाले डोमिनों के नाम से पुकारते हैं और जो इधर प्रायः बधावे आदि के अवसर पर राह चलते हुए ढुक्कड़ और शहनाई पर गातीं, जिनकी लय उनसे भी विशेष विलक्षण होती है, क्योंकि शहनाई की अनुयायी होती। उन से भी अधिक ढोलक चिकारे पर नाचनेवाली (६) नटिनों की जो मध्य श्रेणी की वेश्या है—और कदाचित् इन्हीं के धुन तक कजली की यथार्थता भी रहती है ्। इसके आगे इसकी लय में विशेष विकार उत्पन्न होता, अर्थात् (७) रण्डियों के गाने की लय उन सब से बिलक्षण होती है। क्योंकि उनके उस्ताद कथक, ढाढ़ी श्रादि उसे अपनी सारंगी के साँचे में ढाल, निज चातुरी और कारीगरी दिखलाने के लिए अनेक रागनियों के मेल, सुरों की काट छाँट और जोड़ तोड़, वान, ज़मज़मे वा मींड की मरोड़ से कुछ और का और ही कर डालते हैं। (८) गवैये—कलावंत, ढाढी, कथक, भाँड, भगतिये, और स्वतन्त्र व्यसनशील वा अताई उनसे भी बढ़ जाते हैं।

यद्यपि इनसे अनेक अंशों में प्रायः इसके लय का सुधार और संस्कार भी हुआ है, वरञ्च निःसन्देह कई प्रकार की कलियों को तो उन्होंने सुधार और सँवार कर राग रागनियों को प्रतिष्ठा दे दी है, किन्तु कई तो उनमें से अब कदाचित् रागिनी ही हो गई, जिनमें काजली की स्वाभाविक मनोहरता


  1. लखनऊ वाले तो गुप्त पुंशचली गृहस्थिनो को ही खानगी कहते हैं, परन्तु इधर प्रत्यक्ष निम्न श्रेणी की निकृष्टतम वेश्याओं को।
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