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कजली की कुछ व्याख्या


देवकाज बचनहिं से कीन्हीं सुनतै कंसहि भई छई।
कांति कला सो रही विन्ध्य पर छाई कीरति नित्यनाई॥"

और भी—

"श्रीकान्तीमहरानी, विन्ध्याचल बासिनि॥
खरग, पास, वर, अभय करन में कन्या रूप निमानी।
पीत बसन चूड़ामनि झलकत स्याम बहिनि जग जानी॥
तोहि द्वितीया तंत्र कही पै अद्वितीय ठहरानी।
राउर तीरथ कान्ति नाम कोजाको पावन पानी॥
'त्रिगुन रूप तिरकोन यन्त्र बनि मध्य बिन्दु शिवदानी।'
सिद्ध पीठ यह विन्ध्य कियो तुम गंग नाद लहरानी॥
'काली करी नाम कहाई सिद्धि अष्टभुज' जानी।
देव नाग नर सेवक तोरे लालि धजा फहरानी॥"

स्यामरङ्ग—कजरी

"काजरि ऐसनि देवी कजरिया होना।
कुण्डल मल के लालि नजरिया होना॥
भादौ बदी दुइज के. गोकुल आई होना।
छठ्ठी के निसि विन्ध्याचल पर छाई होना॥
'खरग जवारा हाथन तन लिपटी मटिया' होना।
लाखन छोहरी संग मानहुँ चटिया होना॥
जेहि थल कति नहानी सोई बलिया होना।
जहाँ बसे तीरथ देव अवलिया होना॥"

इसी से स्वर्गीय महाप्राज्ञ काशिराज महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर भी प्रति वर्ष उसी रतजगे की राति को श्री विन्ध्याचल धाम में आकर देवी जी का जन्मोत्सव मनाते थे।

जो हो, किन्तु इन प्रमाणों से यह तो सिद्ध ही है कि कजली त्योहार का देवी पूजा से घनिष्ट सम्बन्ध है और वह प्रायः देवी जी के जन्म से ही विशेष सम्पर्क रखता है। यों ही विन्ध्याचल की देवी ही काली, हरिकाली वा कजली हैं। प्रत्यक्ष में भी त्रिकोण की तीनों व पांचो देवियों की मूर्ति स्याम वर्ण ही देखी जाती, जिन में किसी को अर्थात् चाहे अष्टभुजा वा महाकाली, अथवा प्रधान देवी जिनका प्रसिद्ध कोई विशेष नाम नहीं जैसे-देवी भागवत