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प्रेमघन सर्वस्व

पहिले तो बोखार आवै पीछे धरै गठिया।
केहू के तो लोथ उठै केहू क उठे खटिया।

सं॰ १९३२ का जाहनवी कोप

रतियाँ देखल्यूँ रे सपनबां गंगा बाढ़ी बड़े जोर॥

अब कदाचित् स्थालीपुलकन्याय से सुविज्ञ सज्जन स्वयम् समझ सकते हैं, कि इन पंक्तियों में कैसी कुछ विलक्षणता लक्षित होती है। वास्तव में कजली की न केवल रागिनी वा धुनहीं मनोहारिणी है, बरज्य उसकी रचना और भी अत्यन्त अद्भुत और अनोखी होती है। किन्तु यह भी इसके संगही समझ रखना उचित है कि उक्त गुण और स्वारस्य अधिकांश केवल स्त्रियों ही की रचित कलियों में मिल सकता है, इतरों में अति न्यून और कदाचित्। परन्तु खेदपुर्वक कहना पड़ता है कि अब उनकी संख्या ऐसी घट रही है, कि कदाचित कुछ दिनों में निर्मूल हो जाय तो भी आश्चर्य नहीं; क्योंकि आगे तो पुरुष कवि आदि कदाचित् कोई कोई कजली बना लेते थे, किन्तु अब तो इधर के लोग प्रायः अपनी कविता रचना की योग्यता इसी में दिखाते और भाँति-भाँति की अपनी नई-नई मनमानी गढ़न्त गढ़ते चले जाते हैं। वरच लावनी-बाजों ने जैसे कलगी तुर्रा भेद लगा और अलग अलग अखाड़े बाँध बाँध कर लावनी को खयाल मरहठी आदि नाम दे अपनी मनमानी रीति से बना बना कर उसे उर्दू की चच्ची वा अरबी की बच्ची कर उसकी वास्तविक सरसता को बिगाड़ दिया, तद्रूप यहां भी उनका अनुकरण कर इनके भी अखाड़े बाँध कर लोग कजली की मिट्टी खराब कर रहे हैं।

इन अखाड़ों में एक उस्ताद और कई शागिर्द कहलाते। उस्ताद और दो एक उनके चेले साथी मिलकर कजलियां जोड़ते, और खजरियां बजा बजा कर गाते और कभी दुर दुर कर स्त्रियों की भाँति द्वन्मुनियाँ भी खेलते हैं। इसके भी प्रतिबद्ध रहते कि अपने ही अखाड़े की कलियां गायें, और दूसरों की कदापि नहीं। यो एक भण्डली दूसरे से उभरने और अपने को उससे विशेष योग्य प्रमाणित करने की चेष्टा करती। कभी कभी दङ्गल भी होता और कई मण्डलियां वा अखाड़े एकत्र हो जाते; जिसमें परस्पर एक दसरे को अपनी कजलियाँ सुनाते और अपनी अपनी मनमानी नई कारीगरी दिखलाते, दसरों को प्रचारते और अपने से कुछ अच्छी करतूत कर दिखलाने को ललकारते हैं। यों जोड़ तोड़ की कंजलियाँ उड़तीं, खूब लाग डाट की ठहरती,