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प्रेमघन सर्वस्व

आज तक याद करता होगा। जहाँ सैकड़ों वा अशेष वेश्याओं का हुजूम होता और हज़ारों रुपये खर्च होते थे।

बाग में चार जगह नाच होता था। कोठी के ऊपर के दो मंजिले दीवानखाने में—जिसमें विशेष प्रतिष्ठितों के संग वे स्वयम् तमाशा देखते,—प्रथम श्रेणी की वेश्यायें नृत्य करती थीं। बाहर के नाचघर में जहाँ सब महाजनों के साथ उनके चेले और भाई बैठते, दूसरे दर्जे की, तीसरे शाहमियाने में जहाँ मुनीव जी मय गुमाश्तों, वल्लालाँ और व्यापारियों के संग बैठते, तीसरे; और चौथे चबूतरे पर सर्व सामान्य दर्शक और नर्तकियों का जमघट जमता था और सारे बाग में स्वर का समुद्र लहरै मारता होता था, जो बहुत दिन हुये कि बन्द हो गया।

तलैया का मेला

भाद्र शुक्ल ६ की सन्ध्या को समस्त रण्डियाँ ४ बजे से महंत जी के बाग से लेकर पश्चिम की ओर अन्य अनेक बाटिकाओं के चबूतरों पर नाचती और लोग इस कजली के समाप्ति के मेले को देखते थे, जिसमें समस्त रण्डियाँ एक स्थान पर जमा रहती थीं और काशी नरेश की सवारी निकल जाने पर मेला टूटता था।

अब वह मेला केवल नाममात्र को होता है, विशेषकर जब से काशिराज महाराज का आना बन्द हुआ टूट सा चला है। स्वर्गीय महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर पीछे इसी संध्या के मेले को देखते और सब नर्तकियों को इनाम देते थे। अब भी दो एक रईस सब नाचने वाली रण्डियों को कुछ कुछ देते हैं इसी से कुछ मेले का अस्तित्व भी शेष है।

फुटकर मेले

यों तो यहाँ अनेक दिनों, अनेक स्थानों पर और भी छोटे मोटे अनेक मेले होते, जिन में सामान्य गृहस्थिनैं अथवा ढोलकी बाली नटिनै कजलियाँ भी गाती हैं, परन्तु वे कजली के मेले नहीं कहे जाते, उनमें ६ प्रधान हैं। अर्थात ४ तुकोन के पहाड़ी मेले, जो प्रति श्रावण के मङ्गल के दिन अष्टभुजा में होते, एक लोहदी महाबीर का तथा एक वामनद्वादशी का अन्तिम उऊलेवाला मेला।