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नेशनल कांग्रेस की दशा

यथार्थ प्रबल न हो जाता और देश उनके उद्देश्य के साधनार्थ उद्यत न हो जाता उन्हें नर्म्म दल से बिगड़ कर अकेले अपने आधार पर देशोद्धार का अहंकार कर काँग्रेस को भङ्ग नहीं करना था। चिरदिन से संगठित इस जातीय ऐक्य को व्यर्थ ही, मिटाने का प्रयत्न कैसा कुछ उनका भयङ्कर प्रमाद प्रमाणित करता है। प्रमाद भी कैसा कि जिसमें जूती पैज़ार तक की नौबत आये; जिस कारण विवश होकर शान्त दल को प्रायः सरकारी पुलीस की शरण लेनी पड़े, जो मानों काँग्रेस के गौरव के नाश का कारण है। शान्तों को दूसरी गति न थी। अतः इस के उत्तरदाता भी वे नहीं, बरञ्च गर्म ही दल है। जिसके विषय में सुना जाता है कि वे अधिक कुपित होकर अपनी शक्ति बढ़ाने और गड़बड़ मचाने के अभिप्राय से कुछ उपद्रवी और लठैत गुन्डों की सेना संग्रहीत कर, अपने विपक्ष दल को भी, केवल स्वयम्सेवकों ही पर सन्तोष न कर वरञ्च उनसे संदिग्ध भी होकर ऐसे अन्य प्रबन्धों से अपनी रक्षा करने के अर्थ बाधित किया। यो मानों उस छुट्ट भद्रलोक सम्मिलन को उपद्रवियों का खाँड़ा बना लोगें ने देशहित के पनपते पौधे के समूल नाश करने का उपक्रम प्रारम्भ किया था! अब कहिये? यदि यह दोषारोपण सर्वथा मिथ्या नहीं है, तो कितने बड़े परिताप का हेतु है।

सम्प्रति दो वर्षों से, जब से कि काँग्रेस में दो दल हुए हैं, केवल दो बातों के अर्थ झगड़ा होने लगा है, एक तो, काँग्रेस के समापति निर्वाचन के लिये और दूसरे स्वदेशी आदि कुछ नवीन प्रस्तावों के अर्थ, जो नवीन दल के जन्म के साथ ही उत्पन्न हुये हैं और जिनमें कई तो कांग्रेस में न पास हो कर भी काम में लाये जा सकते हैं। यद्यपि काँग्रेस में पास होने से अवश्य ही उनका महत्व कुछ अधिक बढ़ जाता है। अस्तु कलकत्ते की काँग्रेस में तो शान्त दल ने एक ऐसे महापुरुष को सभापति चुनकर अपना पीछा छुड़ाया कि जो दोनों दलों का तुल्य मान्य था, और जो वह विचक्षण सभापति उन विवादग्रस्त प्रस्तावों को भी स्वीकार, वरच उसमें और भी अधिक महत्व देकर अपना कार्य्य बड़ी सफलता से समाप्त कर सुयश का भागी हुआ। इस वर्ष भी यद्यपि इन सब झगड़ों के प्रधान कारण वे ही थे, परन्तु कुछ उसके साथ व्यक्तिगत इर्षा, दुष, दुराग्रह और स्वार्य भी मिल कर बड़े भयङ्कर परिमाण को उत्पन्न कर देने के हेतु हुये।

सामान्य झगड़ों को छोड़ कर जिससे विवाद और विद्वेष बढ़ा, सभपति को निर्वाचन था। जिसके लिये शान्त दल की ओर से अन्त को डाक्टर