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प्रेमघन सर्वस्व

अर्थात्-पुराना वा नर्म्म शान्त और नवीन व गर्म्म उम्र इसमें परस्पर मतभेद. का होना स्वाभाविक है, क्योंकि यदि एक छकड़े वा रथ की गति से जाने वाला तो दूसरा पैर-गाड़ी (बाईसिकिल) वा हवा गाड़ी (मोटर) के वेग से। अथवा यदि शान्ति का यह सिद्धान्त कि—

धीरे धीरे सब सुधरेगा, क्यों नाहक घबरावो।
जल्दी ऐसी क्या जिससे, मिहनत कर मर जाव॥
अथवा—घरके बाहर पैर निकाला, कोई पकड़ न लेये।
तुम्हें गरीब जान कर, कोई चार धौल कस देये॥
तो दूसरे उग्र पक्ष का सिद्धान्त, कि—
झूठा डर उकवा का छोड़ो कैसा खुदा पयम्बर।
जिससे राहत हो दुनियाँ में, उसी काम को तू कर॥[१]
अथवा—मार खाव तो बदन झाड़कर, फिर भी अकड़ दिखायो।
बातें ऐसी करो कि जैसे तुमी मार कर आओ॥
गारद करो हिन्द को चट पट इसमें देर मत लगाओ।"

किन्तु अत्यन्त शोक से कहना पड़ता है कि अब की बार कुछ ऐसा विभेद न था कि जिसमें ऐसी दुर्दशा पहुँचती और निश्चय यदि इस चार की काँग्रेस में परसाल के दादा भाई के समान कोई भी ऐसा धीर पुरुष कि जिसका दोनों दलों पर समान प्रभाव पड़ता, होता; जैसे कि उनके विषय में हमारी मङ्गलाशा[२] नामी कविता में कहा गया है, कि—

"धनि पारस के पारसीन
को कुल जित पारस।
प्रगट रूप सों प्रगट
भयो प्रगटावन को जस॥


  1. भारत सौभाग्य नाटक को जो इसी कांग्रेस के चिरकाल दशा को कथा के प्रबन्ध पर चतुर्थ कांग्रेस के प्रतिनिधियों को दिखाने के अर्थ लिखा गया था, नायिका मलिका जेहलत की सहचरी पिशाचिनियों का हिली (१) कमहिम्मत (२) लामज़हवी (३) और बेहयाई (४) के उपदेश।
  2. दादा भाई के ब्रिटिश—पार्लियामेण्ट के सदस्य होने के हर्ष में लिखित और उन्हें समर्पित।