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प्रेमघन सर्वस्व

आता है, कि जहाँ ऐसे ऐसे महात्मा उत्पन्न होते कि जो अपने ही अपने को गालियाँ देकर भी सुकीर्ति चाहते हैं; परन्तु जहाँ के लोगों ने स्वार्थान्ध हो अथवा राज्य, धन धर्म वा प्राण बचाने, अथवा कल्याण का दूसरा उपाय न पाने से किसी आपत्काल में कापुरुषता के वशवर्ती हो कोई निन्दनीय कार्य कर भारत के निर्मल यश को कलंकित किया तो उस नित्य अधःपतनशाली देश में आज उनकी सन्तान द्वारा नितान्त मिथ्या कलंक भी लगा कर उसकी वृद्धि करना यद्यपि कुछ विशेष आश्चर्य का विषय नहीं है, तौभी जो अपने देश पर मिथ्या कलंक का लगना नहीं सहन कर सकते, वा अपने प्रार्य कुल के गौरव स्वरूप राजपूत वंश की नितान्त मिथ्या अपकीर्ति बा गाली नहीं सुन सकते, महाराज रामचन्द्र के वंशज हिन्दूपति बादशाह भारत के अभिमान के एकमात्र आधार उदयपुर के प्रातः स्मरणीय महाराणा महोदयों के निर्मल यश को व्यर्थ मिथ्या कलंक से कलुषित देखकर चुप नहीं रह सकते, वे ऐसे ग्रन्थों के अनुवादकर्ता तो क्या वरश्च आदर पूर्वक पढ़ने वालों अथवा पढ़कर पुस्तक न फाड़ डालने वालों को भी कदापि सीधी आँखों नहीं देख सकते; और न उस अपराध को क्षमा कर सकते हैं। फिर अनुवादक तो मानों दूसरा ग्रन्थकर्ता ही है। क्या कोई आर्य सन्तान जो नास्तिक, धर्मच्युत वा उन्मत्त नहीं है राम परीक्षा, कृष्ण परीक्षा वा और ऐसी इसाई पुस्तकें कि जिसमें हमारे वेद और शास्त्रादि की निन्दाएं लिखी हैं, किसी एक भारतीय भाषा से अन्य में अनुवाद करना उचित समझेगा कि जिसके हृदय में उनके गौरव का ध्यान लेशमात्र भी नहीं है। उनको अपने धर्म वा जाति से कुछ भी सहानुभूति नहीं है। अस्तु, उस कलंक के मिटाने की यदि कोई चेष्टा करता है, तो किसी स्वदेश स्वजाति वा स्वधर्माभिमानी आर्य सन्तान की समझ में कदापि अनुचित नहीं अनुमित हो सकता। वरञ्च एक मत से सभी को उसमें मुक्त कण्ठ से साधुवाद के अतिरिक्त दूसरा वक्तव्य असम्भव है। असावधानी के कारण जिससे यह भूल हो गई हो, उसे भी स्वार्थ त्याग कर सादर देश और जाति के मान रक्षार्थ अपनी भूल का प्रायश्चित कर्तव्य है। और ऐसा ही हुआ। परन्तु ऐसे भी आर्य सन्तान देखने में आये जो इसके विरुद्ध उस दोष को गुण बता चले, और यहो सिद्धान्त स्थिर किया, कि—नहीं नहीं कदापि नहीं। जो किया सो किया। यदि किसी ने कोठडी के भीतर तुम्हारे बड़ों को गालियाँ दी और हम उसे सुनकर मेले में सब से कहते फिरते हैं,