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प्रेमघन सर्वस्व

तंग बनानी चाही, किन्तु क्या उन्हें इसका भी ध्यान पाया कि यह कैसी महा मूर्खता है? अलावा इसके कि इसकी कसावट से कितनी ही मेंमें दम घुट-बुट कर मर गईं,—क्योंकि उनका तमाम बदन ऐसी ही विविध प्रकार के तस्मों से कस कस कर सुडौल बनाया जाता कि जैसे चीन की महजबीन अपने पैर छोटे करने के अभिप्राय से काठ की जूतियाँ पहन पहन उनकी वृद्धि को रोकने से अपने पैर बेकाम करके लुज्ज बन जातीं,—यह अपनी ऊपरी शोभा वृद्धि की लालसा से तमाम शरीर ही ढोल वा मृदङ्ग की भाँति कस कस कर बेकाम और निर्जीव बना देती और स्वाभाविक विधि की दी शोभा का सत्यानाश कर डालती हैं! उनमें स्त्रीजनोचित लज्जा ओर सुकुमारता का लेश न रहने से वे केवल नकल की सामग्री मात्र रहती हैं। उनके बाल-ड्रेस वा नृत्यपरिच्छद के देखने से अनेक अवसरों पर यदि मनसिज उद्रेक तो मन में प्रायः दया और जुगुप्सा का भाव भी उदय होता है। क्योंकि वे ऐसे अंगों को भी प्रत्यक्ष खोलकर दिखलातीं, जिसे देख वास्तविक सभ्यता कोसों दूर जा चिल्लाती कि—"अरी बावरियो! यह कैसी जघन्यता है! रसाभास कर क्यों शृङ्गार की मूंडी मरोड़ती हो। निर्लज्जता सरसता की सौत है!" उन्होंने गहने पहिने,परन्तु सींग और हड्डियों के आभारण भी, पक्षियों के पर और बाल, वरञ्च उनकी खाल को भी अपनी शोभा बढ़ानेवाली, समझा! कहिये, यह नागरियों वा परियों का वेष विन्यास है, वा कोल किरात कुमारी अथवा इत्यारी व्याधिनियों का? उन्होंने टीक, तौक, सतलड़े, विविध प्रकार के हार और मालाओं का काम फ़ीतों से निकाल लेना चाहा। यह कैसा निष्फल प्रयत्न है, उन्हें श्राज तक यह न समझ पड़ा कि जो कार्य केवल आँखों की ताक और होठों की मुस्कुराहट से न होगा, वह सर्वाङ्ग प्रदर्शन से भी कदापि न होगा। हाय! जो कमर में हाथ दे पर पुरुष के साथ प्रत्यक्ष नाचती, तब वह फिर इन्कार और इसरार के लिये क्या बाक्ली छोड़ती हैं? वे बिचारी क्या जाने कि प्रेमियों की अति लघु लालसा भी प्रेमिका के अर्थ कैसी कुछ असमंजस उत्पन्नकारी होती है! उनकी तुच्छातितुच्छ कृपा भी कितने मँहगे मोल बिकती कि जो स्वभाव से उन्हें उसके वितरण में अति उद्वेग का हेतु हो वारण करती है, यथा—

"हा हा बदन उघारि द्दग
सफल करैं सब कोय।
रोज सरोजन के परैं
हँसी ससी की होय॥" अथवा—