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इस प्रतिभा का आभास हमें प्रेमघन जी के आलोचना के शैशव काल में मिलता है पर आगे चल कर आपने व्याख्यात्मक शैली का भी प्रयोग किया पर जिसमें काव्य वस्तु के अतिरिक्त अा आपने सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक बातों पर भी विचार किया है। उदाहरण के लिए संयोगिता स्वयंम्बर की आलोचना ले लीजिये। नाट्य शास्त्र के अनुसार उसमें कौन कौन सी त्रुटिताँ आई हैं इसका जिस पटुता से प्रेमघन जी ने वर्णन किया है वह उस समय के लिए महान् है।

रस पात्र, कथा वस्तु, कथोपकथन इत्यादि विषयों की सद् आलोचना इस लेख के अन्तर्गत प्रेमघन जी ने की है जैसे:—

"जिस रस को चाहे ल्याये, जिसका चाहा नाश कर दिया अन्त को लिख दिया जवनिका धीरे धीरे गिरती है। (आप हर अंक में जवनिका गिराते हैं) अब पुरुषों की लड़ाई से सन्तुष्ट न हो स्त्रियों को लड़ाना चाहते हैं।"

सद् समालोचना करने का प्रेमघन जी को कटु अनुभव हुआ था। उन्हें अपने शब्दों में कहना पड़ा था कि यद्यपि सद् आलोचना से सद् साहित्य का निर्माण होता है, पर आलोचक यदि सद् आलोचक है तो उसे उलाहना की चिन्ता नहीं करना चाहिए। "पर विशेष ध्यान रखना चाहिए......

चाहे ग्रन्थकर्ता रुष्ट क्यों न हो जाय, परन्तु चापलूसी और खुशामद सम्पादकों के कलङ्क का कारण है, हमारी कई समालोचनाओं पर कुद्धित हो अनेक ग्रन्थकर्ता ग्राहकों ने कादम्बनी लेना बन्द कर दिया परन्तु उसके लालच वा हानि के कारण हम अपनी उचित और उद्धार सम्मति को प्रकाश करने से बन्द नहीं कर सकते।"

उर्दू वेगम पुस्तक की आलोचना तथा बंग विजेता की प्रा आलोचना संयोगता स्वयम्बर सी नहीं है, इन्हें हम रिव्यू ही कह सकते हैं पर प्रेमघन जी के आलोचना साहित्य के अध्ययन के लिए इनका ऐतिहासिक महत्व है।

साहित्यिक आलोचना का जो सूत्रपात प्रेमवन जी ने किया उसके अतिरिक्त हमें उनकी आलोचना का एक दूसरा रूप भी दिखाई पड़ता है। जिसके अन्तर्गत उनकी समसामयिक परिस्थितियों, व्यक्तियों तथा अनाचारों की भी आलोचना मिलती है। व्याकरण विषय पर महावीर प्रसाद द्विवेदी, तथा बालमुकुन्द गुरु का जो विवाद चला था उस पर "नागरी के समाचार पत्र